Friday 18 October 2019

अमिट यथार्थ : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

कोमल कलाइयों में
खनकती
लाल-फिरोजी चूड़ियाँ
अद्भुत आभायुक्त
खनकते कंगन
शंख-से कानों में
दमकते
स्वर्णशोणित कुण्डल
और पैरों में
छन-छन करती पायल
मस्तक पर बिखरी लटें
और मेरी दुनिया को समेटे
प्यारी-सी
छोटी-सी
बिंदिया
होठ
गुलाब की पंखुड़ियाँ
सिन्धु को समेटे
मुझे निहारती दो आँखें
खींचती हैं अपनी ओर
बुलातीं हैं पास अपने
गुलाबी अम्बर में लिपटी धरा
धीरे-धीरे
पूरे अम्बर को
गुलाबी करते
अम्बर अब अम्बर कहाँ
एकरूप हो गया है
धरा के अलौकिक स्पर्श की
संकल्पना में
जानते हुए भी कि
संकल्पना
कभी यथार्थ का आकार नहीं लेगी
धरा बुलायेगी
और अम्बर यों ही
बुनता रहेगा सपने
यही है
युगों-युगों का
अमिट यथार्थ।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com