Tuesday 20 April 2021

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की दो लघुकथाएँ : बटुआ और बन्नो

बटुआ 
विपिन घर से निकला ही था, तो देखा कि सामने सड़क पर एक बटुआ पड़ा है। कैसे है? किसका है? उठाऊँ या न उठाऊँ? आख़िरकार मन में उठ रहे तमाम सवालों को छोड़ते हुए उसने वह बटुआ उठा ही लिया और यह सोचते हुए खोलकर देखा कि शायद कोई पहचान-पत्र या फ़ोटो हो, संयोग से बटुआ पड़ोस में रहने वाले वर्मा अंकल का था। वह उनके घर की ओर मुड़ गया और पहुँचते ही दरवाज़ा खटखटाया, तो पाया कि सामने वर्मा आन्टी खड़ी हैं। ख़ुशी-ख़ुशी चिल्लाया- "आन्टी! वर्मा अंकल का पर्स, वहाँ रास्ते में मुझे मिला है।" वर्मा आन्टी ने लपक कर विपिन से पर्स ले लिया। "अरे हम लोग कब से ढूँढ़ रहे हैं।" साथ ही तुनकते हुए पूछा- "कितने रूपये हैं इसमें?" विपिन कुछ बोलता, इससे पहले वर्मा आन्टी ने दरवाज़ा बन्द कर लिया।
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बन्नो
बन्नो बात-बात पर पति को ताना मारती और झगड़कर मायके चली जाती। शादी के दो वर्ष हो गये थे और उसने पति के साथ ठीक से दो महीने भी नहीं गुज़ारे थे। पति रमेश उसकी इन हरकतों से दुखी रहने लगा था। किसी काम में उसका मन नहीं रमता था। कुछ समय बाद उसकी घनिष्ठता दूसरी स्त्री के साथ हो गयी और वह उसके साथ घर पर ही रहने लगी। पता चलने पर बन्नो अपने नाज़-नख़रों के साथ एक दिन अचानक रमेश के घर पहुँची और झगड़ा करने लगी। रमेश ने कहा, "तुम मेरे साथ रहो तो मैं इस औरत को छोड़ दूँगा।" "तेरे साथ रहे मेरा ठेंगा, तुझे तो मैं जेल भिजवाऊँगी।" धमकी देकर वह मायके चली गयी और कुछ दिन बाद रमेश जेल की सलाख़ों के पीछे पहुँच गया। इन दिनों मुहल्ले में यह चर्चा आम है कि शादीशुदा होते हुए रमेश ने दूसरी औरत से सम्बन्ध क्यों रखे? समझदार लोगों का कहना है कि बन्नो ने अपने पति की क़द्र की होती तो आज यह नौबत ही नहीं आती।
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© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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