Sunday 12 September 2021

लघुकथा/दो टूक : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

कर्ण पहले से पर्याप्त बदल चुका था। वह अब अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गया था। वह जब भी रिंग रोड स्थित पाण्डवों के आलीशान बँगले के आगे से निकलता, उसका मन पाण्डवों के प्रति घृणा से भर जाता। कर्ण अपनी झोपड़पट्टी वाली खोली देखता और पैंतीस की उम्र में भी कुँवारापन, तो बस यही सोचता कि बेरोज़गारी का दंश उसे कब तक सालता रहेगा। आज उसने तनाव में फिर से शराब पी थी। वह आपे से बाहर हो गया था। अपनी झोपड़पट्टी से निकलकर सीधे पाण्डवों के बँगले के सामने पहुँच गया और हंगामा करने लगा। उसके मन में जो कुछ था, कह रहा था। तमाशा देखने वालों की भीड़ इकट्ठा हो गयी थी। युधिष्ठिर बँगले से बाहर निकलकर आये। कर्ण भाई! यह क्या तमाशा है? कर्ण ने दो टूक कहा- इस दौलत पर मेरा भी हक़ है। मुझे मेरा हक़ दो, नहीं तो...।"  "नहीं तो क्या कर लोगे?", पिस्टल हवा में लहराते हुए भीम ने पूछा। "वह तो मैं कोर्ट में बताऊँगा।", कर्ण चिल्लाया। शोर सुनकर विलायती द्रौपदी की बाँहों में बाँहें डाले एडवोकेट अर्जुन बाहर निकल आये थे- "तुम झोपड़पट्टी वाला लोग हमको कोर्ट में क्या बतायेगा? हम भी तो ज़रा सुन लूँ।" कर्ण सँभलते हुए अर्जुन के कान में फुसफुसाया- "यह जो विलायती द्रौपदी लिए घूम रहा है न, इस पर भी मैं हिस्सा माँग सकता हूँ। तू वकील है, सब जानता है। सम्पत्ति और बँगले में तो मैं अपना हिस्सा ले ही लूँगा।" एडवोकेट अर्जुन के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। कर्ण अपने समय के मशहूर वकील एडवोकेट शकुनि के बँगले की ओर चल दिया।
● डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)
पिन कोड- 212601
वार्तासूत्र- 9839942005

Thursday 26 August 2021

हिन्दी साहित्य लेखन में अंग्रेज़ी शब्दावली के प्रयोग का मर्म - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

वर्तमान में विमर्श का एक बड़ा मुद्दा यह भी है कि हिन्दी साहित्य के सृजन में अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए या नहीं। इस पर कुछ लोग सहमत और कुछ लोग असहमत हो सकते हैं। कुछ लोग "लकीर के फ़कीर" वाली बातें करते हैं कि नहीं हिन्दी में अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग सर्वथा अनुचित है। हमें इस बात को समझने की आवश्यकता है कि अंग्रेज़ी भाषा के अनेक शब्द हिन्दी और हमारी दिनचर्या में आत्मसात् हो गये हैं। हिन्दी बहुत लचीली भाषा है। कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनका कोई विकल्प भी नहीं है। पास और फ़ेल जैसे शब्दों का प्रयोग हम दिन में कई बार करते हैं और अपने हिन्दी शब्दों उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण से अधिक प्रचलित हैं। मोबाइल, लैम्प, लैपटॉप, ईमेल, वेबसाइट, ट्यूशन, ड्राइवर, कमीशन,  साइकिल, मोटरसाइकिल, कम्प्यूटर ऐसे अनेक शब्द हैं। बोलचाल में हिन्दी अपने उद्भव के समय से आज तक अनेक भाषाओं के अनेक शब्दों को स्वयं में आत्मसात् कर चुकी है। ये शब्द हिन्दी में इतने घुलमिल गये हैं कि दिनभर में इन्हें हम कई बार बोलते हैं और यह जान भी नहीं पाते कि ये शब्द मूलतः किन भाषाओं से आये हैं। यही हिन्दी की सामर्थ्य है। हिन्दी ने पुर्तगाली भाषा के आलपीन, आलमारी, अचार, बाल्टी, चाबी, फीता, तम्बाकू, इस्पात, कमीज, कनस्टर, कमरा, गमला, गोदाम, गोभी, तौलिया जैसे जाने कितने शब्द आत्मसात् कर लिये। कैंची, कुली, कुर्की, चेचक, चमचा, तोप, तमगा, तलाश, बेगम, बहादुर आदि तुर्की भाषा से चले आये। चाय और लीची ऐसे शब्द हैं जो चीनी भाषा से चले आये। कारतूश और अंग्रेज़ शब्द फ्रेंच भाषा के हैं। अरबी-फ़ारसी के तो बहुत सारे शब्द हिन्दी में प्रयोग होते हैं। अंग्रेज़ी भाषा ने भी कुछ शब्द हमारी हिन्दी से ग्रहण कर लिये। हमारी हिन्दी दुनिया की सर्वाधिक उदार भाषा है और सभी को अपने रंग में रँग लेती है। यही हिन्दी की ताक़त है। समकालीन साहित्य अपने समय और समाज की भाषा भी साथ लेकर चलता है। यह मेरी अपनी अवधारणा है। मैं लोक व्यवहार में अंग्रेज़ी भाषा के प्रचलित शब्दों से परहेज़ के पक्ष में कतई नहीं रहा, बशर्ते सौन्दर्य नष्ट न हो। हाँ, ये शब्द जनमानस भलीभाँति समझता हो। सुन्दर परिवेश के निर्माण में संलग्न साहित्य का मूल उद्देश्य सार्थक रूप से सभी तक पहुँचना है। इसमें भाषा सेतु का कार्य करती है। अन्य सुधीजन की राय मुझसे इतर हो सकती है। सभी के विचारों का सदैव स्वागत एवं सम्मान है।
● डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
सम्पर्क : अध्यक्ष- अन्वेषी संस्था 
18/17, राधा नगर
फतेहपुर (उ. प्र.)- 212601
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Sunday 22 August 2021

रोटियाँ सेंक रही है/डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ की दस क्षणिकाएँ

हवाएँ
मेरे ख़िलाफ़ हैं
और मैं
हवाओं के ख़िलाफ़,
वजूद की लड़ाई जारी है!
जिसके लिए बाप ने 
सब कुछ/दाँव पे लगाया,
उसी बेटे ने बाप को
घर से भगाया!
मोबाइल में 'बिज़ी' बहू
'ईज़ीचेयर' में बैठी
पान चबा रही है,
दहेज-मुक़दमे में
जेल से बाहर आयी सास
उसके पाँव दबा रही है!
घर-ज़मीन बेच चुके
रामधनी की उम्मीदें
चकनाचूर हो गयीं,
हत्याभियुक्तों की ज़मानत
मंज़ूर हो गयी!
वे
पाप की गठरी
बहाकर आये हैं,
गंगा
नहाकर आये हैं!
'एसी-रूम' में बैठी बहू
'यू-ट्यूब' में
'मूवी' देख रही है,
गाँव की अनपढ़ सास
किचन में
रोटियाँ सेंक रही है!
धूर्त/धुरधंरों पे
भारी पड़ रहे हैं,
यह बात
धूर्त ही नहीं,
धुरंधर भी कह रहे हैं!
सच और झूठ ने
एक ही थाली में
खाना खाया,
अन्याय मुस्काया!
बेटे की शादी में
मौसा जी ने
महँगा कार्ड छपवाया,
और बीपीएल रिश्तेदारों को
आमंत्रण नहीं भिजवाया!
आज
सरकारी नल में
पानी आ रहा है,
यह ख़बर गंगू
सारे गाँव को बता रहा है!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
सम्पर्क : 18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)
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Saturday 29 May 2021

स्वरूप और सम्भावनाओं के आलोक में हिन्दी हाइकु : डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

साहित्य में वर्तमान युग लघुविधाओं का है। आज की व्यस्ततम दिनचर्या में समय का अभाव लघुविधाओं के प्रसार में सहायक है। कम शब्दों में बड़ी बात और पाठक के मस्तिष्क में दीर्घ काल तक अपना स्थान सुरक्षित रखने की क्षमता लघुविधाओं की बड़ी विशेषता है। इन्हीं में से एक है- 'हाइकु'। हाइकु 5/7/5 अक्षर-क्रम में एक त्रिपदीय छन्द है। यह लघु छन्द मात्र सत्रह अक्षरों की लघुता में विराट् को समाहित करने की क्षमता रखता है। हाइकु बिन्दु में सिन्धु है और गागर में सागर भी। हाइकु को काव्य विधा के रूप में महान जापानी कवि मात्सुओ बाशो (1644-1694) ने प्रतिष्ठा प्रदान की। वे हाइकु काव्य विधा के जनक माने जाते हैं। बाशो का मानना था कि पाँच सार्थक हाइकु लिखने वाला सच्चा कवि और दस सार्थक हाइकु लिखने वाला महाकवि कहलाने का अधिकारी है। इस कथन से ही हाइकु कविता के अर्थ घनत्व और गूढ़ता का अनुमान किया जा सकता है; अर्थात् हाइकु का शिल्प जितना सरल प्रतीत होता है, साधना उतनी ही कठिन है। 

यदि यह कहा जाये कि भारत में आयातित काव्य-विधाओं में हाइकु सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य-विधा है, तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यद्यपि कुछ लोग यह कह सकते हैं कि यह श्रेय ग़ज़ल को मिलना चाहिए, तो मैं यही कहूँगा कि बिलकुल नहीं; क्योंकि ग़ज़ल अरबी-फ़ारसी के साथ ही भारत आयी और धीरे-धीरे हिन्दी ने उसे आत्मसात् कर लिया, जबकि जापानी भाषा का यह छन्द हाइकु अपनी भाषा के साथ नहीं आया, बल्कि उस शिल्प को हिन्दी ने सीधे आत्मसात् किया। काव्य का प्रधान तत्व लय है, गति है। इसके अभाव में काव्य की कोई भी विधा दीर्घकालिक नहीं हो सकती। सफल काव्याभिव्यक्ति मात्र पृष्ठों की ही धरोहर नहीं होती, बल्कि वह कंठासीन होती है; जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानान्तरित होती रहती है। हाइकु भी तुकान्त हो या अतुकान्त, बिना गति (लय) के सफलता नहीं अर्जित कर सकता, सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता है। सुप्रसिद्ध हाइकुकार डॉ. मिथिलेश दीक्षित दी का कथन है- "लय तो हाइकु-कविता में सौन्दर्य के रंग भर देती है, तुकान्तता हो या नहीं।" कविता निरन्तर साधना का प्रतिफल होती है, तभी वह सिद्धि प्राप्त कर पाती है। हाइकु के सम्बन्ध में यह बात शत-प्रतिशत सत्य है। हाइकु के मामले में कुछ ऐसा भी हुआ कि जिनका काव्य से कोई लेना-देना नहीं था, कविता से जिनके कोई सरोकार नहीं थे। वे सब यश के भूखे 5-7-5 की जुगत भिड़ाने लगे और स्वयं को हाइकुकार मानने लगे। ऐसे लोग धीरे-धीरे पत्र-पत्रिकाओं, इण्टरनेट तथा कुछ संकलनों में भी आ गये। इनके उत्थान में गुटबाज़ों और अर्थलोलुपों का मुख्य योगदान रहा। इसका प्रतिफल यह हुआ कि आम पाठक भ्रम का शिकार हुआ, तो कतिपय सुधी समीक्षकों ने हाइकु को अधिक महत्व देने से इन्कार कर दिया, किन्तु आजीवन जिन्होंने हाइकु के अधिकार की लड़ाई लड़ी और साधना की, वे हाइकु को आगे ले गये और हाइकु को प्रतिष्ठापित भी किया तथा उसे पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित कराया।

आज वर्तमान में, जबकि मनुष्य दैनिक उपक्रम में आवश्यकता से अधिक व्यस्त है, तो उसके पास पठन-पाठन के लिए समय भी कम हुआ है। लम्बी कविताओं के बजाय हाइकु जैसी छोटी कविता बेहद कम समय लेती है और पाठक को चिन्तन के लिए बहत कुछ देती है। ऐसे में हाइकु ने पाठकों के बीच गहरी पैठ भी बनायी है। यही कारण है कि आज दुनिया की अनेक भाषाओं में हाइकु लिखे जा रहे हैं।

जापानी काव्य में हाइकु का प्रमुख विषय प्रकृति-सौन्दर्यबोध एवं प्रकृति निरूपण ही था, किन्तु हिन्दी हाइकु ने प्रकृति के साथ-साथ जीवन के प्रत्येक रंग को सफलतापूर्वक भर दिया है। हिन्दी हाइकुकारों ने हाइकु के प्रति जो प्रीति, समर्पण तथा निष्ठा व्यक्त की है। हाइकु साहित्य को जिस प्रकार से समृद्ध किया है और उसे आम पाठकों के बीच लोकप्रिय बनाया है। उस आधार पर यह कहा जा सकता है कि अब यह छन्द केवल जापानियों का ही नहीं है, बल्कि हमारा भी है। हिन्दी के ममत्व ने हाइकु की सम्भावनाओं को विस्तृत आकाश दिया है। 

कतिपय समर्थ रचनाकारों द्वारा हाइकु में किये गये सर्वथा नवीन प्रयोगों ने इसे और सुरुचिपूर्ण तो बनाया ही, इसे और जीवन्त भी बनाया। हाइकु-दोहे, हाइकु-ग़ज़ल, हाइकु-तेवरी, हाइकु-गीतिका, हाइकु गीत/नवगीत, हाइकु-रुबाई तथा हाइकु-मुक्तक आदि हाइकु के नवीन प्रयोग हैं। ये नये प्रयोग इस विशिष्टता के परिचायक हैं कि हाइकु ऐसा प्रयोगधर्मी छन्द है, जिसकी सम्भावनाएँ अत्यन्त विस्तृत हैं। हाइकु की सम्भावनाओं के सन्दर्भ में एक बात जो और महत्वपूर्ण हो जाती है, वह है- हाइकु समीक्षा। किसी भी विधा का सही मूल्यांकन होना भी आवश्यक है और यह कार्य समीक्षा ही सही ढंग से आगे ले जाती है। यदि समीक्षा सही रास्ते पर होती है, तो सृजन को भी दिशा और गति प्राप्त होती है। इधर देखा जा रहा है कि कतिपय समीक्षकों के हाइकु विषयक कई आलेखों एवम् समीक्षाओं में समग्रता और सर्वांगता का नितान्त अभाव है। वे विषयपरक न होकर व्यक्तिपरक अधिक हैं। यदि हमें हाइकु को और अधिक आगे ले जाना है, तो हमें और अधिक सचेत होना पड़ेगा और पूर्वाग्रह से मुक्त होकर मूल्यांकन कार्य करने होंगे। हाइकु की विस्तृत सम्भावनाओं के दृष्टिकोण से यह बात अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यहाँ हाइकु-सृजनकारों और हाइकु-समीक्षकों दोनो को, अपने-अपने उत्तरदायित्वों का बोध करना होगा। यहाँ एक बात और महत्वपूर्ण हो जाती है कि हाइकु में अधिक से अधिक शोध कार्य भी होने चाहिए। शोध कार्य किसी भी अभियान को गति प्रदान करते हैं और हाइकु के क्षेत्र में यह बेहद आवश्यक है। यद्यपि इधर बीच कुछ विश्वविद्यालयों ने हिन्दी हाइकु में शोध कार्य को बढ़ावा दिया है, किन्तु ऐसे प्रयास अभी कम हैं। ऐसे में शोध-प्राध्यापकों का उत्तरदायित्व भी बढ़ जाता है।

©  डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
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Wednesday 12 May 2021

संकल्पों के गुलाबी संवेग/डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की क्षणिकाएँ

अम्बर के प्रणय-निवेदन पर
लजा गयी धरती,
मुख से निकला
एक शब्द- "अहा!"
और तब से स्वीकृति का
एक पर्याय 
अहा भी 
हो गया। 

उसकी चुप्पी में
पढ़े मैंने
उसके मन के भाव,
एक थी हृदय की वेदना
एक थे नयनों के बोल,
ओढ़ लिया धरा ने
हया का घूँघट,
रह गया मुस्कुरा कर
नभ।

देह के आसपास 
देह से कोसों दूर
एक-दूसरे की चेतना में
रमे दो पक्षी,
लिख रहे- 
अनकहे प्रेम की
यशोगाथा,
साक्षी है समय।

मिलूँगा तुमसे
एक दिन 
किसी निर्जन स्थान पर,
और देखूँगा उसे
निश्छल मुस्कान के सानिध्य में
साथ तुम्हारे
हरा-भरा होते हुए।

विराम मत दो
संवाद को,
शायद-
हो जाये कोई कविता
पी लेना चाय
फिर कभी।

कुछ बोलती क्यों नहीं
बस देख रही 
एकटक तुम मुझे
और मैं तुम्हें 
गोया कोई तस्वीर हो तुम 
और मैं कोई बुत।

मुस्कुरा दी तुम- 
बिखरने लगीं स्वर्ण-किरणें
करने लगी जादू-
नथ की आभा,
और फिर कान में 
फुसफुसाया सूरज- 
"सुनो! यही है महारानी
तुम्हारे सपनों की।"

दुनिया दर्द/तुम मरहम,
दुनिया अश्कों का सैलाब 
तुम ख़ुशी का समन्दर,
तुम संग
जीवन में रंग ही रंग।

तुम्हारा आना
मेरे हाथ से लिफ़ाफ़ा लेना
और मुस्कराकर चली जाना,
उर अन्तर में- तुम ही तुम, 
सुनो! लौट कर आना-
इन्हीं वादियों में,
मैं प्रतीक्षा करूँगा सदियों।

भिन्न से अभिन्न
द्वैत से अद्वैत 
वाद न विवाद, 
कल्पनाओं से परे है
मन और यथार्थ का संवाद।

भरकर दृगों में 
प्रीति का महासमुद्र 
सूर्य की एक-एक किरण
फिर बिखरेगी,
बेशक! 
धूप निखरेगी।

सुनकर/प्रीति के जादुई बोल
और गाढ़ी हो गयी
उसके हाथों की मेहन्दी,
हया ने/ओढ़ लिया घूँघट,
पानी-पानी
हो गया चाँद।

"जा रही हूँ, बाॅय"
और फ़ोन कट...,
मस्तिष्क ऊहापोह में 
मन सपनों में 
उसके मधुर स्वर से
आकाश गुलाबी हो गया।

दृष्टि के समक्ष 
उसकी 
मुस्कुराती हुई तस्वीर,
पीड़ा छूमन्तर!
मुझे गहन अनुभूति हुई 
सृष्टि के सामर्थ्य की।

उसने ओढ़ ली चुप्पी
मैं पढने लगा मौन की भाषा,
वह हँसी
कह गयी बहुत कुछ
इशारों में,
मैं ढूँढने लगा
अनुभूति में शब्द, 
और वह गढ़ रही थी स्वयं
अलौकिक प्रीति का यथार्थ-लोक।

मैं उसके हृदय में
वह मेरे हृदय में
हम दोनो ज्यों नदी के दो तट
हम दोनो ज्यों धरती-आकाश
हम दोनो ज्यों चंदा-सूरज
प्रसन्न हैं- 
एक-दूसरे को निहार कर।

दुनियाभर के दुराग्रहों से दूर
दो अपृथक आत्माएँ 
कर रहीं संवाद,
सदियों ने प्रस्तुत किये
एकीकृत संवेदनाओं के साक्ष्य,
तब प्रति पृष्ठ में दोनो ने पढ़ा-
अपने संकल्पों के गुलाबी संवेग।

"अलविदा मत कहना कभी",
इतना ही कहा धरा ने 
और 
जीत लिया-
आकाश। 

कहा उसने-
"मत करना कभी
छोड़कर जाने की बात,
कहो - सॉरी।",
आशंकाओं से पनपे पौधे
हो गये विनष्ट, 
खड़ा हो गया-
नेह का वटवृक्ष।

प्रतीक्षा में सूरज 
बिखेर रहा किरणें 
आ जाना तुम 
अस्तगामी होने से पूर्व, 
न आ सको तो-
मत आना,
सूरज, फिर मिलेगा कल
पूर्व से पश्चिम तक 
भोर से सन्ध्या तक।

तुमसे मिलकर 
जान पाया-
प्रीत ही जीत, 
सजनी!
मैं गीत/तुम संगीत,
बस! यों ही चलती रहें
अपृथक श्वासें,
नहीं चाहिए भूमण्डल।

बहुत देर से
ठहरा हुआ हूँ
इनबाॅक्स में,
शायद तुम लिखोगी कुछ 
या फिर भेजोगी कोई इमोजी,
मौन टूटता ही नहीं,
तुम भी सोच रही होगी 
मुझे ही,
जानता हूँ।

असंख्य सपनों के साये में
झंकृत है रोम-रोम,
स्मृतियाँ/कूक रहीं कोयल-सी,
चुप्पियों की सघन छाँव में 
महक उठा है-
संवेगों का घरौंदा,
तुम्हें आना ही होगा।

मैंने महसूस किया 
उतर गयी 
दिन भर की थकान,   
भेजी उसने
मैसेंजर में 
हाथों में चाय का कप थामे 
एक क्यूट-सी सेल्फ़ी।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com

Tuesday 20 April 2021

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की दो लघुकथाएँ : बटुआ और बन्नो

बटुआ 
विपिन घर से निकला ही था, तो देखा कि सामने सड़क पर एक बटुआ पड़ा है। कैसे है? किसका है? उठाऊँ या न उठाऊँ? आख़िरकार मन में उठ रहे तमाम सवालों को छोड़ते हुए उसने वह बटुआ उठा ही लिया और यह सोचते हुए खोलकर देखा कि शायद कोई पहचान-पत्र या फ़ोटो हो, संयोग से बटुआ पड़ोस में रहने वाले वर्मा अंकल का था। वह उनके घर की ओर मुड़ गया और पहुँचते ही दरवाज़ा खटखटाया, तो पाया कि सामने वर्मा आन्टी खड़ी हैं। ख़ुशी-ख़ुशी चिल्लाया- "आन्टी! वर्मा अंकल का पर्स, वहाँ रास्ते में मुझे मिला है।" वर्मा आन्टी ने लपक कर विपिन से पर्स ले लिया। "अरे हम लोग कब से ढूँढ़ रहे हैं।" साथ ही तुनकते हुए पूछा- "कितने रूपये हैं इसमें?" विपिन कुछ बोलता, इससे पहले वर्मा आन्टी ने दरवाज़ा बन्द कर लिया।
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बन्नो
बन्नो बात-बात पर पति को ताना मारती और झगड़कर मायके चली जाती। शादी के दो वर्ष हो गये थे और उसने पति के साथ ठीक से दो महीने भी नहीं गुज़ारे थे। पति रमेश उसकी इन हरकतों से दुखी रहने लगा था। किसी काम में उसका मन नहीं रमता था। कुछ समय बाद उसकी घनिष्ठता दूसरी स्त्री के साथ हो गयी और वह उसके साथ घर पर ही रहने लगी। पता चलने पर बन्नो अपने नाज़-नख़रों के साथ एक दिन अचानक रमेश के घर पहुँची और झगड़ा करने लगी। रमेश ने कहा, "तुम मेरे साथ रहो तो मैं इस औरत को छोड़ दूँगा।" "तेरे साथ रहे मेरा ठेंगा, तुझे तो मैं जेल भिजवाऊँगी।" धमकी देकर वह मायके चली गयी और कुछ दिन बाद रमेश जेल की सलाख़ों के पीछे पहुँच गया। इन दिनों मुहल्ले में यह चर्चा आम है कि शादीशुदा होते हुए रमेश ने दूसरी औरत से सम्बन्ध क्यों रखे? समझदार लोगों का कहना है कि बन्नो ने अपने पति की क़द्र की होती तो आज यह नौबत ही नहीं आती।
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© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
सम्पर्क : अध्यक्ष- अन्वेषी संस्था
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिनकोड- 212601
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Monday 22 March 2021

विश्व जल दिवस पर विशेष हाइकु : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

जल-जीवन 
व्यर्थ हैं जल बिन
'शुक्र'-'मंगल'।

जल-चेतना 
अद्भुत-अनमोल 
जीवन्त सृष्टि।

जब बचेंगे
जंगल-जलाशय
बचेंगे हम।

जल-रक्षण
अति-आवश्यक
सुखी भविष्य।

जल के साथ 
जिये कल की पीढ़ी
रोप दो पौधे।

जल अस्तित्व 
जल गढ़े जीवन 
जल सर्वस्व। 

निहित प्राण
बूँद-बूँद जीवन  
जल प्रमाण।

जल-आधार 
बूँद-बूँद बचाओ
पुण्य कमाओ।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com 

Wednesday 10 March 2021

मम्मी : चार ताँका - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

घर को घर
इंसान को इंसान
बनाती मम्मी
पीती विष सर्वदा
पिलाती सुधा सदा।

शुभ मुहुर्त
घर आ गयी बहू
ख़ुश हुई माँ
रह गयी निक्कमी
ग़ुम हो गयी मम्मी।

काम ही काम
दिन-रात सुश्रुषा
उफ़ न आह
देवताओं ने कहा-
विलक्षण है मम्मी।

हार के जीता
नौ दो ग्यारह हुईं 
बद-दुआएँ
भारी पड़ीं  फिर से
मम्मी की प्रार्थनाएँ।
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© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
ईमेल: veershailesh@gmail.com 

Monday 8 March 2021

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के नारी विमर्श पर केन्द्रित हाइकु

दुनिया पढ़े
नेह के कीर्तिमान 
नारी ने गढ़े।
तितली बोली-
क्यों न उड़ूँ आज़ाद
सन्नाटा छाया।
नारी ने किया-
सत्य का साक्षात्कार 
जग को चुभा।
बेटी नभ में 
जग का बोझ धरे
उड़ान भरे।
नदी झूमती
पार कर त्रासदी 
नभ चूमती।
कंटक पथ
हैरानी में दुनिया 
जीत रही स्त्री।
दम्भ से मुक्त 
विश्वास ही विश्वास 
नारी की सदी।
रोज़ छूती स्त्री 
हिमालय की चोटी
बिन बताये।
पीड़ा की यात्रा 
फिर भी असीमित
प्रेम की मात्रा।
धरा खोजती
चाँद के आर-पार
अस्तित्व-नद।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com

Tuesday 5 January 2021

पीड़ा - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

(1)
भीतर पीड़ा बाहर पीड़ा, कितनी पीड़ा है जग में।
पीड़ा की शासन-सत्ता है, पीड़ा बहती रग-रग में।
बंदी रवि है, राजा तम है, कण्टक बिखरे मग-मग में।
इस पीड़ा को दमन करूँ मैं, इतिहास रचूँ पग-पग में-
ख़्वाहिश लेकर जीता हूँ
रोज़ हलाहल पीता हूँ।

पीड़ा मेरी सहचरी बनी,
मैं पीड़ा संग इठलाता हूँ।
पीड़ा से मेरा नाता है,
इसमें अपनापन पाता हूँ।

पीड़ा सिखलाती समर मुझे,
पीड़ा देती रसबोध मुझे।
पीड़ा जीना समझाती है,
पीड़ा से मिला प्रबोध मुझे।

मैं पीड़ा तजकर चलूँ किधर,
यह हर पल साथ निभाती है।
पल भर की साथी हैं खुशियाँ,
पीड़ा ही साथ निभाती है।

पीड़ा चलती है जब तनकर,
सुख जाने जाता भाग किधर।
जिधर दिखायी देती पीड़ा,
सुख कभी न आता पास उधर।

मिट्टी से मिलती जब पीड़ा,
तब मोक्ष मनुजता पाती है।
चरम बिन्दु पर जाकर पीड़ा,
जीवन-रहस्य समझाती है।

पीड़ा कविता भी लिखती है,
पीड़ा लिखती है महाकाव्य।
इतिहास सृजन करती पीड़ा
पीड़ा दिखलाती महाभाग्य।

पीड़ा का अपना वैभव है,
यह सँभल-सँभलकर चलती है।
पीड़ा न किसी को छलती है,
पीड़ा तो मिलकर चलती है।

पीड़ा से आह निकलती है,
है यह भी बिल्कुल सत्य कथन।
पीड़ा दृष्टि दिखाती हरदम,
है यह भी बिल्कुल सत्य वचन।

पीड़ा जिसके भी साथ रही,
मनु वह निष्कंटक चला सदा।
पीड़ा से मानव जन्मा है,
पीड़ा ही लेकर पला सदा।

परचम लहराता पीड़ा का-
जब, तब आता सुख पास कहाँ।
सुख का वैभव क्षणभंगुर है,
है दुख में सुख का वास कहाँ।
■