Saturday 29 May 2021

स्वरूप और सम्भावनाओं के आलोक में हिन्दी हाइकु : डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

साहित्य में वर्तमान युग लघुविधाओं का है। आज की व्यस्ततम दिनचर्या में समय का अभाव लघुविधाओं के प्रसार में सहायक है। कम शब्दों में बड़ी बात और पाठक के मस्तिष्क में दीर्घ काल तक अपना स्थान सुरक्षित रखने की क्षमता लघुविधाओं की बड़ी विशेषता है। इन्हीं में से एक है- 'हाइकु'। हाइकु 5/7/5 अक्षर-क्रम में एक त्रिपदीय छन्द है। यह लघु छन्द मात्र सत्रह अक्षरों की लघुता में विराट् को समाहित करने की क्षमता रखता है। हाइकु बिन्दु में सिन्धु है और गागर में सागर भी। हाइकु को काव्य विधा के रूप में महान जापानी कवि मात्सुओ बाशो (1644-1694) ने प्रतिष्ठा प्रदान की। वे हाइकु काव्य विधा के जनक माने जाते हैं। बाशो का मानना था कि पाँच सार्थक हाइकु लिखने वाला सच्चा कवि और दस सार्थक हाइकु लिखने वाला महाकवि कहलाने का अधिकारी है। इस कथन से ही हाइकु कविता के अर्थ घनत्व और गूढ़ता का अनुमान किया जा सकता है; अर्थात् हाइकु का शिल्प जितना सरल प्रतीत होता है, साधना उतनी ही कठिन है। 

यदि यह कहा जाये कि भारत में आयातित काव्य-विधाओं में हाइकु सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य-विधा है, तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यद्यपि कुछ लोग यह कह सकते हैं कि यह श्रेय ग़ज़ल को मिलना चाहिए, तो मैं यही कहूँगा कि बिलकुल नहीं; क्योंकि ग़ज़ल अरबी-फ़ारसी के साथ ही भारत आयी और धीरे-धीरे हिन्दी ने उसे आत्मसात् कर लिया, जबकि जापानी भाषा का यह छन्द हाइकु अपनी भाषा के साथ नहीं आया, बल्कि उस शिल्प को हिन्दी ने सीधे आत्मसात् किया। काव्य का प्रधान तत्व लय है, गति है। इसके अभाव में काव्य की कोई भी विधा दीर्घकालिक नहीं हो सकती। सफल काव्याभिव्यक्ति मात्र पृष्ठों की ही धरोहर नहीं होती, बल्कि वह कंठासीन होती है; जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानान्तरित होती रहती है। हाइकु भी तुकान्त हो या अतुकान्त, बिना गति (लय) के सफलता नहीं अर्जित कर सकता, सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता है। सुप्रसिद्ध हाइकुकार डॉ. मिथिलेश दीक्षित दी का कथन है- "लय तो हाइकु-कविता में सौन्दर्य के रंग भर देती है, तुकान्तता हो या नहीं।" कविता निरन्तर साधना का प्रतिफल होती है, तभी वह सिद्धि प्राप्त कर पाती है। हाइकु के सम्बन्ध में यह बात शत-प्रतिशत सत्य है। हाइकु के मामले में कुछ ऐसा भी हुआ कि जिनका काव्य से कोई लेना-देना नहीं था, कविता से जिनके कोई सरोकार नहीं थे। वे सब यश के भूखे 5-7-5 की जुगत भिड़ाने लगे और स्वयं को हाइकुकार मानने लगे। ऐसे लोग धीरे-धीरे पत्र-पत्रिकाओं, इण्टरनेट तथा कुछ संकलनों में भी आ गये। इनके उत्थान में गुटबाज़ों और अर्थलोलुपों का मुख्य योगदान रहा। इसका प्रतिफल यह हुआ कि आम पाठक भ्रम का शिकार हुआ, तो कतिपय सुधी समीक्षकों ने हाइकु को अधिक महत्व देने से इन्कार कर दिया, किन्तु आजीवन जिन्होंने हाइकु के अधिकार की लड़ाई लड़ी और साधना की, वे हाइकु को आगे ले गये और हाइकु को प्रतिष्ठापित भी किया तथा उसे पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित कराया।

आज वर्तमान में, जबकि मनुष्य दैनिक उपक्रम में आवश्यकता से अधिक व्यस्त है, तो उसके पास पठन-पाठन के लिए समय भी कम हुआ है। लम्बी कविताओं के बजाय हाइकु जैसी छोटी कविता बेहद कम समय लेती है और पाठक को चिन्तन के लिए बहत कुछ देती है। ऐसे में हाइकु ने पाठकों के बीच गहरी पैठ भी बनायी है। यही कारण है कि आज दुनिया की अनेक भाषाओं में हाइकु लिखे जा रहे हैं।

जापानी काव्य में हाइकु का प्रमुख विषय प्रकृति-सौन्दर्यबोध एवं प्रकृति निरूपण ही था, किन्तु हिन्दी हाइकु ने प्रकृति के साथ-साथ जीवन के प्रत्येक रंग को सफलतापूर्वक भर दिया है। हिन्दी हाइकुकारों ने हाइकु के प्रति जो प्रीति, समर्पण तथा निष्ठा व्यक्त की है। हाइकु साहित्य को जिस प्रकार से समृद्ध किया है और उसे आम पाठकों के बीच लोकप्रिय बनाया है। उस आधार पर यह कहा जा सकता है कि अब यह छन्द केवल जापानियों का ही नहीं है, बल्कि हमारा भी है। हिन्दी के ममत्व ने हाइकु की सम्भावनाओं को विस्तृत आकाश दिया है। 

कतिपय समर्थ रचनाकारों द्वारा हाइकु में किये गये सर्वथा नवीन प्रयोगों ने इसे और सुरुचिपूर्ण तो बनाया ही, इसे और जीवन्त भी बनाया। हाइकु-दोहे, हाइकु-ग़ज़ल, हाइकु-तेवरी, हाइकु-गीतिका, हाइकु गीत/नवगीत, हाइकु-रुबाई तथा हाइकु-मुक्तक आदि हाइकु के नवीन प्रयोग हैं। ये नये प्रयोग इस विशिष्टता के परिचायक हैं कि हाइकु ऐसा प्रयोगधर्मी छन्द है, जिसकी सम्भावनाएँ अत्यन्त विस्तृत हैं। हाइकु की सम्भावनाओं के सन्दर्भ में एक बात जो और महत्वपूर्ण हो जाती है, वह है- हाइकु समीक्षा। किसी भी विधा का सही मूल्यांकन होना भी आवश्यक है और यह कार्य समीक्षा ही सही ढंग से आगे ले जाती है। यदि समीक्षा सही रास्ते पर होती है, तो सृजन को भी दिशा और गति प्राप्त होती है। इधर देखा जा रहा है कि कतिपय समीक्षकों के हाइकु विषयक कई आलेखों एवम् समीक्षाओं में समग्रता और सर्वांगता का नितान्त अभाव है। वे विषयपरक न होकर व्यक्तिपरक अधिक हैं। यदि हमें हाइकु को और अधिक आगे ले जाना है, तो हमें और अधिक सचेत होना पड़ेगा और पूर्वाग्रह से मुक्त होकर मूल्यांकन कार्य करने होंगे। हाइकु की विस्तृत सम्भावनाओं के दृष्टिकोण से यह बात अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यहाँ हाइकु-सृजनकारों और हाइकु-समीक्षकों दोनो को, अपने-अपने उत्तरदायित्वों का बोध करना होगा। यहाँ एक बात और महत्वपूर्ण हो जाती है कि हाइकु में अधिक से अधिक शोध कार्य भी होने चाहिए। शोध कार्य किसी भी अभियान को गति प्रदान करते हैं और हाइकु के क्षेत्र में यह बेहद आवश्यक है। यद्यपि इधर बीच कुछ विश्वविद्यालयों ने हिन्दी हाइकु में शोध कार्य को बढ़ावा दिया है, किन्तु ऐसे प्रयास अभी कम हैं। ऐसे में शोध-प्राध्यापकों का उत्तरदायित्व भी बढ़ जाता है।

©  डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
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Wednesday 12 May 2021

संकल्पों के गुलाबी संवेग/डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की क्षणिकाएँ

अम्बर के प्रणय-निवेदन पर
लजा गयी धरती,
मुख से निकला
एक शब्द- "अहा!"
और तब से स्वीकृति का
एक पर्याय 
अहा भी 
हो गया। 

उसकी चुप्पी में
पढ़े मैंने
उसके मन के भाव,
एक थी हृदय की वेदना
एक थे नयनों के बोल,
ओढ़ लिया धरा ने
हया का घूँघट,
रह गया मुस्कुरा कर
नभ।

देह के आसपास 
देह से कोसों दूर
एक-दूसरे की चेतना में
रमे दो पक्षी,
लिख रहे- 
अनकहे प्रेम की
यशोगाथा,
साक्षी है समय।

मिलूँगा तुमसे
एक दिन 
किसी निर्जन स्थान पर,
और देखूँगा उसे
निश्छल मुस्कान के सानिध्य में
साथ तुम्हारे
हरा-भरा होते हुए।

विराम मत दो
संवाद को,
शायद-
हो जाये कोई कविता
पी लेना चाय
फिर कभी।

कुछ बोलती क्यों नहीं
बस देख रही 
एकटक तुम मुझे
और मैं तुम्हें 
गोया कोई तस्वीर हो तुम 
और मैं कोई बुत।

मुस्कुरा दी तुम- 
बिखरने लगीं स्वर्ण-किरणें
करने लगी जादू-
नथ की आभा,
और फिर कान में 
फुसफुसाया सूरज- 
"सुनो! यही है महारानी
तुम्हारे सपनों की।"

दुनिया दर्द/तुम मरहम,
दुनिया अश्कों का सैलाब 
तुम ख़ुशी का समन्दर,
तुम संग
जीवन में रंग ही रंग।

तुम्हारा आना
मेरे हाथ से लिफ़ाफ़ा लेना
और मुस्कराकर चली जाना,
उर अन्तर में- तुम ही तुम, 
सुनो! लौट कर आना-
इन्हीं वादियों में,
मैं प्रतीक्षा करूँगा सदियों।

भिन्न से अभिन्न
द्वैत से अद्वैत 
वाद न विवाद, 
कल्पनाओं से परे है
मन और यथार्थ का संवाद।

भरकर दृगों में 
प्रीति का महासमुद्र 
सूर्य की एक-एक किरण
फिर बिखरेगी,
बेशक! 
धूप निखरेगी।

सुनकर/प्रीति के जादुई बोल
और गाढ़ी हो गयी
उसके हाथों की मेहन्दी,
हया ने/ओढ़ लिया घूँघट,
पानी-पानी
हो गया चाँद।

"जा रही हूँ, बाॅय"
और फ़ोन कट...,
मस्तिष्क ऊहापोह में 
मन सपनों में 
उसके मधुर स्वर से
आकाश गुलाबी हो गया।

दृष्टि के समक्ष 
उसकी 
मुस्कुराती हुई तस्वीर,
पीड़ा छूमन्तर!
मुझे गहन अनुभूति हुई 
सृष्टि के सामर्थ्य की।

उसने ओढ़ ली चुप्पी
मैं पढने लगा मौन की भाषा,
वह हँसी
कह गयी बहुत कुछ
इशारों में,
मैं ढूँढने लगा
अनुभूति में शब्द, 
और वह गढ़ रही थी स्वयं
अलौकिक प्रीति का यथार्थ-लोक।

मैं उसके हृदय में
वह मेरे हृदय में
हम दोनो ज्यों नदी के दो तट
हम दोनो ज्यों धरती-आकाश
हम दोनो ज्यों चंदा-सूरज
प्रसन्न हैं- 
एक-दूसरे को निहार कर।

दुनियाभर के दुराग्रहों से दूर
दो अपृथक आत्माएँ 
कर रहीं संवाद,
सदियों ने प्रस्तुत किये
एकीकृत संवेदनाओं के साक्ष्य,
तब प्रति पृष्ठ में दोनो ने पढ़ा-
अपने संकल्पों के गुलाबी संवेग।

"अलविदा मत कहना कभी",
इतना ही कहा धरा ने 
और 
जीत लिया-
आकाश। 

कहा उसने-
"मत करना कभी
छोड़कर जाने की बात,
कहो - सॉरी।",
आशंकाओं से पनपे पौधे
हो गये विनष्ट, 
खड़ा हो गया-
नेह का वटवृक्ष।

प्रतीक्षा में सूरज 
बिखेर रहा किरणें 
आ जाना तुम 
अस्तगामी होने से पूर्व, 
न आ सको तो-
मत आना,
सूरज, फिर मिलेगा कल
पूर्व से पश्चिम तक 
भोर से सन्ध्या तक।

तुमसे मिलकर 
जान पाया-
प्रीत ही जीत, 
सजनी!
मैं गीत/तुम संगीत,
बस! यों ही चलती रहें
अपृथक श्वासें,
नहीं चाहिए भूमण्डल।

बहुत देर से
ठहरा हुआ हूँ
इनबाॅक्स में,
शायद तुम लिखोगी कुछ 
या फिर भेजोगी कोई इमोजी,
मौन टूटता ही नहीं,
तुम भी सोच रही होगी 
मुझे ही,
जानता हूँ।

असंख्य सपनों के साये में
झंकृत है रोम-रोम,
स्मृतियाँ/कूक रहीं कोयल-सी,
चुप्पियों की सघन छाँव में 
महक उठा है-
संवेगों का घरौंदा,
तुम्हें आना ही होगा।

मैंने महसूस किया 
उतर गयी 
दिन भर की थकान,   
भेजी उसने
मैसेंजर में 
हाथों में चाय का कप थामे 
एक क्यूट-सी सेल्फ़ी।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com