Thursday 26 September 2019

ड्यु सेल्फ़ी : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

किचन की खिड़की से
मैंने निहारा
प्रियतमा को चुपचाप
बिखरी लटों के बीच से
उसने भी निहारा मुझे
एक हो गयी नज़र
मुस्कुराये हम दोनों
एक लम्बी खिलखिलाहट ने
तोड़ दी चुप्पी -
और कोई काम नहीं क्या
जब देखो तब
चले आते हो दबे पाँव
देखो न जल गयी रोटी
जाते हो या...
और लटों को किनारे कर
साड़ी के पल्लू से
पोंछ ली
माथे का पसीना
बेलने लगी फिर एक रोटी
मैं निहारता रहा -
विश्वास की आँच में
दमदमाता अलौकिक सौन्दर्य
नेह की लोई में सनी
निश्छल मुस्कान
चेतना ने देखा -
संकल्प के चूल्हे में पका
जन्म-जन्मांतर का सानिध्य
सोचता रहा -
बाधाओं के तवे पर
आत्मविश्वास के चिमटे ने
पकड़ रक्खे हैं सभी सपने
जिन्हें साकार होना ही है
हमारी ज़िद के आगे
यकायक
उसने देखा मुझे
लजाये कपोल
बुदबुदाये होंठ
हे भगवान
गये नहीं तुम अभी
मत बुनो ख़्वाब
खड़े-खड़े
आओ
भरकर बाँहों में
ले लो एक सेल्फ़ी
ड्यु है कब से!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
26/09/2019
doctor_shailesh@rediffmail.com

Saturday 14 September 2019

हिन्दी दिवस : दस क्षणिकाएँ - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

1-
जो लोग
हिन्दी के नाम पर
चाँदी काटते हैं,
वे भी अब
अपने बच्चों को
अंग्रेज़ी में
डाँटते हैं!

2-
अंग्रेज़ी का रुतबा
कब घटा है,
बस उत्तर धड़ा
दक्षिण धड़ा
आपस में
बँटा है!

3-
हिन्दी के कवि को
पत्नी रोज़ तोलती है,
जब अंग्रेज़ी में
'शटअप' बोलती है!

4-
हम प्रतिवर्ष
हिन्दी दिवस
मनाते हैं,
और फिर
सालभर
अंग्रेज़ी की
बंसी बजाते हैं!

5-
नयी पीढ़ी के लोग
सुबह से शाम तक
अंग्रेज़ी में बड़बड़ाते हैं,
ये बात और है
आधा ख़ुद ही नहीं
समझ पाते हैं!

6-
वे/हिन्दी में सोचते हैं
हिन्दी में हँसते-गुस्साते हैं,
विदेशी अनुभव
अंग्रेज़ी में सुनाते हैं!

7-
दादी भी जब से
सी फॉर कैट
और डी फॉर डॉग
जानने लगी है,
अंग्रेज़ी में बतियाने लगी है!

8-
देश का उत्तरोत्तर
विकास हो रहा है,
यह बात और है
हिन्दी का ह्रास हो रहा है!

9-
अंग्रेज़ी के कद्रदान
अपना भाषण
हिन्दी में
दूसरों से लिखा रहे हैं,
हिन्दी दिवस
मना रहे हैं!

10-
अगले वर्ष हम
फिर हिन्दी दिवस मनायेंगे,
और चद्दर तानकर
साल भर के लिए
फिर सो जायेंगे!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
editorsgveer@gmail.com 


Sunday 1 September 2019

*मन का रावण मरा नहीं है* : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

हुआ सत्य से झूठ पराजित, और दैन्य से दम्भ।
पूर्ण हुआ अभियान विजय से, कष्टों से प्रारम्भ।
उन्हें पूजती दुनिया सारी, संस्कृति के स्तम्भ।
उनसे चलती श्वास सृष्टि की, उनसे ही आरम्भ।।

जो समष्टि हित जीते हरदम, वे बन जाते राम।
मन का रावण मार सके जो, वे कहलाते राम।
धरती डोले जब असुरों से, तब आते हैं राम।
अहम् शून्य मर्यादा भारी, यही बताते राम।।

आज दशहरे पर फिर से, वही तमाशेबाज़ी।
चंदा करके रावण बनता, होती आतिशबाज़ी।
आज अमावस फिर सोया है, खाकर बासी भाजी।
बोलो कैसे पर्व मनाऊँ, मन कैसे हो राजी।।

भिक्खू का परिवार सड़क पर, फटेहाल पहनावा।।
फूँक दिया था घर रज्जू ने, लल्लन का है दावा।
जैसे-तैसे जेल भी पहुँचे, ज़रा नहीं पछतावा।
मन का रावण मरा नहीं है, करते ढोंग दिखावा।।

बल-वैभव का करें प्रदर्शन, अनगिन ऐसे रोग।
जैसे तैसे जो भी आये, करते धन का योग।
अपकर्मों से नाता जिनका, सुरा, सुंदरी, भोग।
फूँक रहे हैं रावण पुतले, रावण जैसे लोग।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com