Thursday 21 July 2022

लघुकथा/नवजीवन - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

"तुम लोग कुछ और क्यों नहीं करते? यों ताली पीटकर और गा-बजाकर कब तक काम चलेगा? समय के साथ बदलते क्यों नहीं?" लड़का होने की आहट पाकर घर आयी किन्नरों की टोली को मोटा शगुन देते हुए आरव ने एक प्रश्न हवा में उछाल दिया तो एक किन्नर ने उत्तर भी दे दिया- "और हम कर भी क्या सकते हैं? हमारे घरवाले हमारे सगे तो अपने हुए नहीं। और तुम कहते हो कि", तभी दूसरा किन्नर बोल पड़ा- "बाबू! आपका इतना बड़ा बिज़नेस है, आप ही कोई काम दे दो। हम छोड़ दें ये सब। हम सब गँवार नहीं, कुछ पढ़े-लिखे भी हैं।" आरव के चेहरे की हवाइयाँ उड़ने लगीं कि टोली में से एक किन्नर और बोल पड़ा- "साहब! आपका समाज हमें बख़्शीश तो दे सकता है, पर पेट भरने के लिए कोई काम नहीं।" 

पास बैठी आरव की माँ भी बोल पड़ी- "जब तूने प्रश्न किया था तो अब इनको उत्तर भी दे।" "इस टोली के सभी सदस्य आज अभी से मेरी कम्पनी के इम्पलॉयी होंगे। काम का बँटवारा कल कर दूँगा।" आरव के इतना कहते ही नवजात शिशु का क्रन्दन वातावरण में अलौकिक मिठास घोलने लगा। मानो नवजीवन के उत्सव में आकाश से पुष्पवर्षा हो रही थी।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com

Sunday 10 July 2022

लघुकथा/दुआएँ - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

चारबाग़ बस-स्टैण्ड से निकलकर बस बँगला बाज़ार आकर रुकी थी कि सवारियों के साथ-साथ दो किन्नर भी आ गये। दुआओं के बदले सभी से बख़्शीश लेने लगे। कुछ ने बख़्शीश दी और दुआएँ लीं तो कुछ ने मुँह चुरा लिये। कुछ ने अपने चेहरे चौड़े किये और तरह-तरह की बातें करने लगे। 

अब तक एक किन्नर पीछे की सीट पर बैठे दिनेश बाबू तक पहुँच गया था। "ऐ गुमसुम बाबू! कुछ दो।" वे अपने में ही खोये रहे और कुछ नहीं बोले। "अरे बाबू! इतना उदास क्यों।" "कोई बात नहीं। माता रानी सब दुख हर लें और सदा ख़ुश रहो आप, मेरी दुआ है।" इतना कहकर किन्नर जैसे ही मुड़ा, भतीजे की मौत से टूटे हुए दिनेश बाबू उसके हाथ में  दो सौ की नोट रखते हुए फफक पड़े- "माता रानी तुम्हें भी ख़ुशहाल रखें मेरे बच्चे।"

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Wednesday 6 July 2022

लघुकथा/राजकुमार मिल गया - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

"देखो मेरा पीछा मत करो, तुम कल वहाँ मिले थे और आज यहाँ। तुम चाहते क्या हो!" एक श्वास में मीना विजेन्दर से कह गयी। "यही कि तुमसे मोहब्बत है हमें और यही कि तुम्हें अपना बनाना है।" विजेन्दर ने भी अपने मन की उसे बता दी। 
"देखो तुम जानते नहीं कि मैं कौन हूँ।" 
"ख़ूब जानते हैं। दरोगा साहब की बेटी हो और कौन हो! हम बचपन से तुम्हारे दीवाने हैं। हिम्मत जुटाकर कल से तुम्हारा पीछा कर रहे हैं और तुम हो कि बात ही नहीं करती।"
"पर तुम नहीं जानते कि"
"कि दरोगा साहब हमारी हड्डी-पसली एक कर देंगे और क्या!"
"वह बात नहीं!"
"तो फिर"
"मैं किन्नर हूँ।" पहली बार अपने जीवन का अधूरा सच मीना किसी से एक झटके में कह गयी।
विजेन्दर एकटक उसे देखने लगा और बुदबुदाया- "पर तुम तोऽऽऽ"
उसे बीच में रोकते हुए मीना बोल पड़ी-
"प्यार तो अब तुम्हारा हवा हो गया होगा!"
"बिलकुल नहीं। तुम हाँ कह दो, तो सारी दुनिया एक ओर। मैं और तुम एक ओर।" इस बार एक श्वास में विजेन्दर बोल गया। 
मीना ने देखा कि आसमान झुक कर उसका अभिनन्दन कर रहा था। उसने झटपट पर्स से अपना मोबाइल निकाला और उधर से हैलो का स्वर सुनायी पड़ते ही चहक कर बोल पड़ी- "राजकुमार मिल गया पापा।"

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