Saturday 29 April 2023

विश्वास करो : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

मैं 
असहज हो गया था 
उस दिन 
तुम्हारी आँखों में आँसू देख कर 
सम्भवतः 
पहली बार मुझे 
लगा था ऐसा 
कि तुम्हारे हृदय में 
मेरे लिए भी 
छिपा है ढेर सारा प्यार 
और मैं नहीं समझ सका कभी। 

उस दिन मेरी आँखें भी
हो गयी थीं- नम 
मैं कहना चाह रहा था 
बहुत कुछ 
तुम्हारे रुआँसे स्वर 
"जा रहे हो...कब आओगे" 
के प्रत्युत्तर में, किन्तु 
साथ नहीं दे पा रहा था 
मेरा रुँधा गला 
उस वक़्त..., 
और अनवरत् आँसुओं में भीगे 
मेरे शब्द - मेरे स्वर 
अटके जा रहे थे 
चेतना/निःशब्द-सी हो गयी थी 
बहुत साहस बटोर कर 
नज़रें घुमा कर 
बस इतना ही 
कह सका था- 
"हाँ...पता नहीं" 
और चरण स्पर्श कर 
चल दिया था 
विश्वास करो दादा जी 
मैं रोना चाह रहा था 
लिपट कर 
जी भर 
ज़ोर-ज़ोर से, 
पर मेरा साहस 
शायद लुप्तप्राय था।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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