Monday 19 February 2024

सर पर स्वर्ण किरीट : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे

मन जब से फागुन हुआ, रहा तालियाँ पीट।
मानो कोई रख गया, सर पर स्वर्ण किरीट।।

गाया करता हूँ प्रिये, लिखे तुम्हारे गीत।
शायद आये लौट फिर, गया समय जो बीत।।

ढले कभी जो प्रीत में, गीत और नवगीत।
रचे-बसे हैं आज भी, मन में मेरे मीत।।

बातें मधुवन-सी लगें, मन में छाये मेह।
नेह नगर के अंक में, संकल्पों का गेह।।

नयन झुके, सपने सजे, जगी हृदय क़ंदील।
मन बौराया हो गया, सागर, झरना, झील।।

मिले मीत जब अंक भर, बचे न मन में भीति।
यही प्रीति की नीति है, यही प्रीति की रीति।।

चैट हुई, फिर जुड़ गये, जुड़े होम टू होम।
मन बातें करने लगा, भारत से अब रोम।।

जीवन का सुर-ताल तुम, तुम हो मेरी गीति।
धन्य स्वयं को मानता, मिली तुम्हारी प्रीति।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)
veershailesh@gmail.com

Wednesday 7 February 2024

मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना के प्रति सजग है 'समकालीन दोहा' : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

सदियों से दोहा छन्द हिन्दी की काव्य परम्परा का सिरमौर रहा है। नये युग में नये आयामों का समावेश कर दोहा वर्तमान में भी पूरी ठसक के साथ विद्यमान है। कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि दोहा छन्द 'कोहिनूर' की भाँति अपनी चमक बिखेर रहा है और सदियों तक बिखेरता रहेगा। दोहा एक ऐसी विधा है, जो अपने लघु रूप में विराटता के दर्शन करा सकने में समर्थ है। दोहे को बारम्बार परिभाषित करने से बेहतर है कि दोहे के सन्दर्भ में महाकवि रहीम के इस दोहे का निहितार्थ हम भलीभाँति समझ लें- "दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।/ज्यौं रहीम नट कुण्डली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं।।" महाकवि बिहारी भी दोहे की प्रभावोत्पादकता को स्पष्ट करते हैं कि "सतसइया के दोहरे, ज्यौं नावक के तीर।/देखन में छोटन लगैं, घाव करैं गम्भीर।।" 

'समकालीन दोहा' का पैना यथार्थ-बोध न्यूनतम शब्दों में अधिकतम अर्थ-घनत्व समाहित किये हुए है। यही कारण है कि इसमें शाश्वत मानवीय मूल्यों को समाहित कर सकने की क्षमता है, जिसके केन्द्र बिन्दु में मनुष्यता की पुनर्स्थापना है। यों तो काव्य में अभिव्यक्ति हेतु अनेक विधाएँ हैं, किन्तु बदलते परिवेश में संक्षिप्तता का मूल्य अधिक है। यदि कम शब्दों में अधिक बात कहने की सामर्थ्य हो, तो बहुत अधिक में कहने की कोई आवश्यकता नहीं। वर्तमान यांत्रिक युग में यह और आवश्यक हो जाता है, जहाँ प्रत्येक पल का मूल्य है और जहाँ विस्तार से सुनने-समझने के लिए समय की न्यूनता है। ऐसे में अभिव्यक्ति की अनेक विधाएँ हैं, किन्तु संक्षिप्तता में अर्थ-घनत्व की दृष्टि से सर्वाधिक प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए दोहा विधा का महत्त्व सर्वाधिक है। सपाटबयानी से मुक्त 'समकालीन दोहा' बहुत कम में बहुत अधिक कह सकने की कला में प्रवीण है।

'समकालीन दोहा' राजनीति, समाज तथा धर्म में व्याप्त कुरूपता और आडम्बर पर ठोस प्रहार करता है। 'समकालीन दोहा' चाटुकारिता के मोह जाल से मुक्त है और प्रतिरोध की एटमी सामर्थ्य से युक्त है। घनी जड़ता के जंजाल को तोड़कर नये युग में दोहा नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। यद्यपि इस दौर में भी सब कुछ समय की माँग के अनुरूप लिखा जा रहा है, पूर्णरूपेण ऐसा नहीं कहा जा सकता। अभी भी दोहा छन्द में कार्य करने वाले अनेक रचनाकार अठारहवीं सदी में ही जी रहे हैं। वे समकालीन मूल्यों, भाषा तथा सांस्कृतिक परिवर्तनों से अनभिज्ञ हैं या फिर परिवर्तन बोध और दायित्व बोध के सामान्य सिद्धान्तों और उसकी उपयोगिता के निहितार्थ को समझना ही नहीं चाहते।

कविता की किसी भी विधा का मूल उद्देश्य यही है कि भटके हुए मानव का पथ प्रशस्त करे। जब कविता में आम आदमी स्वयं की उपस्थिति की अनुभूति करता है, तो वह निहित सन्देश को समझता भी है और सामयिक युग की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं की तपन भी महसूस करता है। कविता का उद्देश्य सदैव यही  होना चाहिए कि मनुष्य अपने अन्तर्मन में झाँक कर उसे 'फिल्टर' करने का सार्थक प्रयास भी करे कि सभ्यता के विकास-क्रम में वे आगे की ओर जा रहे हैं, या पतनोन्मुख हो रहे हैं। 'समकालीन दोहा' ने इस बात को पूरी तरह से समझा और इस मूल उद्देश्य को स्वयं में आत्मसात् कर लिया। तभी तो बाबा नागार्जुन लिखते हैं- "आज गहन है भूख का, धुँधला है आकाश।/कल अपनी सरकार का, होगा पर्दाफ़ाश।।"

आज के दोहे का मूल स्वर प्रतिरोध है। एक दोहाकार में सत्ता की नाकामियों और मुखौटा ओढ़े समाज का पर्दाफ़ाश करने का साहस होना आवश्यक है। बेहतर समाज के निर्माण में समकालीन दोहाकार की पैरवी वैसे ही आवश्यक है, जैसे कि कोर्ट में सच्चाई की पैरवी कर रहे एक सच्चे वकील की दलीलें। सच्चाई के पक्ष में साक्ष्य जुटाना और उनका सही प्रस्तुतीकरण भी एक सच्चे दोहाकार की कसौटी है। समकालीन दोहे का प्रतिरोध उस प्रत्येक जड़ता का प्रतिरोध है, जो सभ्य समाज को लील जाने के लिए आकुल है। यह जड़ता संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त है, चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक क्षेत्र हो या फिर आर्थिक। कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है। 'समकालीन दोहा' के इस मर्म और मूल भाव को समझते हुए वर्तमान में अनेक दोहाकार पूर्ण निष्ठा के साथ सृजन में निरन्तर रत हैं।

आम आदमी की पीड़ा की अभिव्यक्ति समकालीन बोध का प्रमुख ध्येय है। 'समकालीन दोहा' इस ध्येय को आत्मसात् कर समाज में व्याप्त प्रत्येक अशुभ के संहार का प्रण लिये हुए है। इस प्रण में 'समकालीन दोहा' के कथ्य और बोध के उपमान और बिम्ब भी समकालीन हैं। यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि चार चरण और अड़तालीस मात्र में दोहा ने शिल्प की आधुनिकता को स्वीकार किया है। भाषा की समकालीनता और शैली की नवीनता ने मिलकर आज के दोहे को क्षरित होते मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना का पूर्ण उत्तरदायित्व सौंप दिया है। यह उत्तरदायित्व 'समकालीन दोहा' पूर्णतः निभा रहा है, इसमें कोई संशय नहीं।

□ डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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