Sunday 12 September 2021

लघुकथा/दो टूक : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

कर्ण पहले से पर्याप्त बदल चुका था। वह अब अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गया था। वह जब भी रिंग रोड स्थित पाण्डवों के आलीशान बँगले के आगे से निकलता, उसका मन पाण्डवों के प्रति घृणा से भर जाता। कर्ण अपनी झोपड़पट्टी वाली खोली देखता और पैंतीस की उम्र में भी कुँवारापन, तो बस यही सोचता कि बेरोज़गारी का दंश उसे कब तक सालता रहेगा। आज उसने तनाव में फिर से शराब पी थी। वह आपे से बाहर हो गया था। अपनी झोपड़पट्टी से निकलकर सीधे पाण्डवों के बँगले के सामने पहुँच गया और हंगामा करने लगा। उसके मन में जो कुछ था, कह रहा था। तमाशा देखने वालों की भीड़ इकट्ठा हो गयी थी। युधिष्ठिर बँगले से बाहर निकलकर आये। कर्ण भाई! यह क्या तमाशा है? कर्ण ने दो टूक कहा- इस दौलत पर मेरा भी हक़ है। मुझे मेरा हक़ दो, नहीं तो...।"  "नहीं तो क्या कर लोगे?", पिस्टल हवा में लहराते हुए भीम ने पूछा। "वह तो मैं कोर्ट में बताऊँगा।", कर्ण चिल्लाया। शोर सुनकर विलायती द्रौपदी की बाँहों में बाँहें डाले एडवोकेट अर्जुन बाहर निकल आये थे- "तुम झोपड़पट्टी वाला लोग हमको कोर्ट में क्या बतायेगा? हम भी तो ज़रा सुन लूँ।" कर्ण सँभलते हुए अर्जुन के कान में फुसफुसाया- "यह जो विलायती द्रौपदी लिए घूम रहा है न, इस पर भी मैं हिस्सा माँग सकता हूँ। तू वकील है, सब जानता है। सम्पत्ति और बँगले में तो मैं अपना हिस्सा ले ही लूँगा।" एडवोकेट अर्जुन के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। कर्ण अपने समय के मशहूर वकील एडवोकेट शकुनि के बँगले की ओर चल दिया।
● डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)
पिन कोड- 212601
वार्तासूत्र- 9839942005