Sunday 31 March 2019

ख़ूबसूरत पलों की एक सेल्फ़ी : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

आओ बैठो
मेरे पास
बातें करें जी भर
यहाँ-वहाँ की
हम दोनों।

आओ बैठो
कुछ देर
साथ-साथ जी लें
सुकून के कुछ पल
तुम अपनी सुनाओ
मैं अपनी।

दिनभर की आपाधापी में
आज तुम कहाँ हँसी जी भर
मैं सोच रहा था
जब तुम आओगी
कहूँगा-
तुम्हारे लिए तोड़ लाऊँ
गगन से सितारे
और तुम कहोगी
हर बार की तरह
पागल!
धरती पर ही रहो
यहीं मेरे पास
मत जाओ कहीं
नहीं चाहिए मुझे सितारे-वितारे!
लो तुम्हारे चेहरे पर आ गयी
नैसर्गिक हँसी,
खिलखिलाने लगी तुम।

ए सुनो
आओ इन ख़ूबसूरत पलों की
ले लें एक सेल्फ़ी
तुम हँसो जी भर!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
28/03/2019

Tuesday 26 March 2019

जीत पर इतराते कंगन : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

तुम्हारे कंगन की
अरुणिम आभा से
झंकृत है समूचा परिवेश

मनोमस्तिष्क में गूँज रहे हैं
तुम्हारे ये कंगन
हृदय में धड़क रहे हैं
तुम्हारे ये कंगन
श्वासों में गतिमान हैं
तुम्हारे ये कंगन

मत घुमाओ
अपनी कलाई को
यों बारम्बार
कंगन की लालिमा
खींच रही है मुझे
तुम्हारी ओर,
इतना नि:शक्त नहीं हुआ था पहले कभी

अन्तर को
निरन्तर
बेधते ही
जा रहे हैं,
तुम्हारे ये कंगन
मानो कंगन नहीं
हों काम के दूत

तुम्हारी गोरी कलाइयों का
पाकर साथ
कंगन हो गये हैं
रतिराज के पुष्पबाण
अब तक जान चुके हैं
शायद ये भी
मैं हो गया हूँ सामर्थ्यशून्य

देखो इन कंगनों को
कैसे इतरा रहे हैं
अपनी जीत पर,
और तुम
फिर घुमा रही हो
कभी ये
कभी वो
अपनी गोरी कलाई!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com

Monday 25 March 2019

क्षणिका - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

तुमसे मिलने बारिश स्वयं चली आयी
और तुम
देखो न मौसम का जादू
आओ बैठते हैं
गंगा के तट पर
ढेर सारी बातें करेंगे
हम-तुम!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
25/03/2019

अनन्तता की परिधि में - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

अनन्तता की परिधि में
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आत्मानुभूति की कोई भाषा नहीं होती
देह के बन्धन से मीलों दूर
हर संशय से मुक्त है यह निराकार नेह
अलौकिक है तुम्हारा सानिध्य
मैं विचरण कर रहा हूँ अनन्तता की परिधि में
धरती गा रही है सुरीला गीत
मुट्ठी में है आकाश!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
25/03/2019


मन मयूरपंख हो गया है : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'


आज तुमने फिर
पहन रक्खे हैं
अपने कानों में
मेरे पसन्दीदा
मयूर पंख वाले कुण्डल।

आज फिर तुम
मुझे पागल कर दोगी
तुम्हारी चितवन
मेरे अन्तर में
अनन्त आशाओं के
जाल बुनती है,
मत देखो ऐसे।

क्या नदी, क्या झील
क्या समन्दर
सब कुछ
कुछ भी नहीं
तुम्हारे इन नील-नयनों के समक्ष।

कपोलों पर थिरकती लटें
और ये गुलाबी रजपट
जी करता है
पास आकर
भर लूँ तुम्हें
अपनी बाहों में
क्या तुम जानती हो -
मेरा बोध
तुम्हारे सौन्दर्य में
समाहित हो गया है
अद्भुत है यह अहसास
हाँ, सखी!
मन मयूरपंख हो गया है
और झूम रहा है
ब्रह्माण्डरूपी कर्ण में
बनकर कुण्डल
हाँ...,

तुम सुनती ही नहीं
मेरी धड़कनें
कब से
तुम्हें पुकार रही हैं,
और तुम
बस
बस
मन्द-मन्द मुस्कुराती ही रहोगी
या पास भी आओगी,
धड़कनें ख़ामोश हों
इससे पहले आओ
गले लगा लो,
आकाशगंगाएँ
आतुर हैं
हमारे मिलन के
महा उत्सव को
निहारने के लिए!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
फतेहपुर,  उत्तर प्रदेश 
25/03/2019

Sunday 24 March 2019

यह गुलाबी वसन तुम्हारा : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

तुम्हारा यों एकटक देखना-
जैसे प्रकृति निहार रही हो
समन्दर की चंचल लहरों को।

तुम्हारा यों एकटक देखना-
जैसे मही को
टकटकी लगाये
देख रहा हो अनन्त आकाश।

तुम्हारा यों एकटक देखना-
मन करता है
बादलों की ओट से
बस देखता रहूँ तुम्हें।

समन्दर की चंचल लहरें गुलाबी हैं
सारा आकाश गुलाबी है
बादलों का रंग भी आज गुलाबी है
जानती हो क्यों?
तुम्हारे गुलाबी वसन की आभा
तुम्हारे गुलाबी वसन की ख़ुशबू
तुम्हारे गुलाबी वसन का कौतुक
सबने मिलकर
सृष्टि को कर दिया है गुलाबी,
और मेरा मन
तुम तो जानती ही हो सहेली
कब से गुलाबी है!
मत देखो यों एकटक-
तुम्हारे सौन्दर्य की
अद्भुत छटा ने
मेरे रोम-रोम को वसन्त कर दिया है!

इन अलकों-पलकों ने
बन्दी बना रक्खा है मुझे
और मेरे मन को,
मैं अब
मैं नहीं हूँ
और तुम-
तुम भी शायद तुम नहीं।
हाँ सखी,
तुम्हारी मासूमियत के समक्ष
नतमस्तक हूँ मैं।

छोड़ो स्वयं की उँगलियों से
स्वयं की उँगलियाँ पकड़ना,
आओ -
थाम लो इन हाथों को,
चलो साथ अनन्त काल तक।

तारे एक-दूजे के कान में
फुसफुसा रहे हैं
आज की रात
टिमटिमाएँगे जी भर
उन्हें भी प्रतीक्षा है
महामिलन की,
कुछ सुना तुमने
या देखती रहोगी
यों ही एकटक...!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
ईमेल- veershailesh@gmail.com 
24/03/2019