Saturday 19 December 2020

रेत में घर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

(क्षणिकाएँ)
समय की 
टेढ़ी चाल ने
अंकुश लगाया,
महल
सपनों का-
भरभराया।
□ □
आँखों ने बुने सपने
ओझल हो गयी
हृदयस्थ गौरैया,
नहीं बनाऊँगा
अब कभी
रेत में घर।
□ □
मौसम काफ़ी सर्द है
और हवाओं में नमी है
जानता हूँ-
बदलेगा यह
आयेगा/जायेगा,
पर टूट जायेगा
सपनों का नीड़
जानता हूँ यह भी।
□ □
खिड़की खुली तो रहेगी
धूप जब चाहे
आये-जाये,
बची रहेगी मुस्कान
तो अवश्य मुस्कुरायेगा-
घरौंदा
आशाओं का।
□ □

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' 
doctor_shailesh@rediffmail.com

[क्षणिका]

Wednesday 4 November 2020

गंगा शुभ की सुगति है - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

जल जिसका अमरित सदा, तट ज्यों पावन धाम।
भवायनी भागीरथी, सुरसरि गंगा नाम।।

देती जीवन दृष्टि है, देती नेह अनूप।
गंगा संस्कृति बोध है, गंगा माँ का रूप।। 

चलें कुपथ की राह जो, लाती उन्हें सुमार्ग।
गंगा निर्मल भावना, गंगा सत् का मार्ग।।

पाती संसृति चेतना, पाता जीवन अर्थ।
माँ गंगा की छाँह में, मिटते सभी अनर्थ।।

करती शुभ प्रत्यक्ष है, देती पुण्य परोक्ष।
पापरहित गंगा करे, गंगा देती मोक्ष।।

गंगा पावन भावना, संकल्पों की हेतु।
गंगा शुभ की सुगति है, धर्म-कर्म की सेतु।।

जन-जीवन की चेतना, संस्कृति का आधार।
गंगा शुभ की कामना, देती पुण्य अपार।।

माँ गंगा की शक्ति ने, खड़े किये उद्योग।
हमने कूड़ा फेंक कर, दिये हज़ारों रोग।।

गंगा देती सुख हमें, करती प्रेम अपार।
युगों-युगों से है रही, भव सागर से तार।।

पूर्ण मनोरथ हों सभी, हो वैभव शुभ नाम।
हे गंगा मैया तुम्हें, बारांबार प्रणाम।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com

Monday 19 October 2020

सेफ़्टी पिन लगा कर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

(3 क्षणिकाएँ)

जब उसने भेजी 
एक क्यूट मुस्कान वाली तस्वीर 
और लिखा कि-
"रख लो इसे बायीं ज़ेब में 
सेफ़्टी पिन लगा कर।"
तब गलबहियाँ करते,
मैंने साक्षात् देखा-
धरा को अम्बर से मिलते।
□ □
उसने कहा मुझसे
"अच्छे लगते हो तुम।"
ऐसा लगा
जैसे किसी ने सौंप दिया
मेरे हाथों में
ख़ुशियों का महाकाश।
□ □
तब बादलों ने 
समन्दर की स्याही से
गगन के भाल पर
लिख दिया-
जन्म-जन्मान्तर का साथ,
जब उसने रख दिया  
मेरे धड़कते दिल पर
अपना जादुई हाथ। 
□ □
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' 
doctor_shailesh@rediffmail.com

[क्षणिका]


Sunday 27 September 2020

चेतना के स्वर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

आज सूरज-चाँद मेरी मुट्ठी में नहीं
आज नदी के तट पर 
पहले जैसी रंगत नहीं
आज मौसम का जादू पहले जैसे नहीं
चिड़ियाँ चहचहा तो रहीं
तितलियाँ उड़ तो रहीं
भँवरे गुनगुना तो रहे
हवा सरसरा तो रही
पर पता नहीं क्यों
आज मन उदास है
काश कि वह पास होती
पूछ लेती मुझसे मेरी पीड़ा
मैं रख लेता अपना सर
उसकी गोद में
दो पल के लिए 
और फिर खिलखिला उठती प्रकृति
और फिर बज उठते हृदय के तार
और फिर से सुन पाता
धड़कनों का मधुरिम संगीत 
हृदय में घुल जाते मिसरी-से बोल
काश कि चेतना के स्वर
पहुँच पाते उस तक...!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
27/09/2020

मैं फिर ड्राइविंग सीट पर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

आज बातों-बातों में
जब पकड़ लिया 
तुमने मेरा हाथ 
बाँचे अपने दुख
मैं और तुम 
घुल गये
जैसे...
नहीं सोच पा रहा कोई उपमा
कई बार लगता ऐसे
जैसे मैं कलम, तुम स्याही
और समय काग़ज़ 
तुम आयी मेरे और क़रीब 
रख लिया अपना सर
मेरे कंधे पर
चुपचाप, 
मैं सुनाता रहा
तुम्हें एक प्यारा-सा गीत
जो लिखा था कभी तुम पर
तुम सुनती रही चुपचाप 
बीच-बीच में देख लेती
एकटक मुझे
हौले-से एक मुस्कान ने कुरेदा तुम्हें
और खिलखिला पड़ी तुम
जैसे होने लगी हो ज़ोर की बारिश 
शाम का धुँधलका
लो, तुमने छीन ली मुँह की बात-
गाड़ी रोको, कुछ देर
ठहर लेते हैं इसी मौसम के साथ
और मैंने रोक दी गाड़ी 
उतर आया ड्राइविंग सीट से
हाथ पकड़कर उतारा तुम्हें
लो सचमुच शुरू हो गयी ज़ोर की बारिश 
मानो पा गयी वसुधा 
अम्बर की पाती
भीगे हम-तुम
भीगा मन,
तुमने ज़िद की
ए सुनो, सुनाओ एक और गीत 
बादलों ने भी की मनुहार 
आकाशीय बिज़ली ने भी किये इशारे
हम चले कुछ देर आगे-पीछे
दृष्टि पड़ी आम के पेड़ पर
और तुम चीख पड़ी-
"झ्झ्झूला..."
दौड़ पड़ी उधर,
हम दोनो झूले पर मगन,
छा गया मौसम का जादू
तुम बैठ गयी
मेरी गोद में
एक हुई नज़र
गुलाबी हो गये मेघ के कपोल
लजा गयी तुम 
झुकी दृष्टि
और मैं निहारता रहा तुम्हें
अपलक,
मन में अनगिनत सपने
बस मैं और तुम 
अचानक कूदी एक गिलहरी
पत्तों से टपकी बूँदें 
और आ गिरीं
हम दोनो के होठों पर,,,
थमी बारिश 
कानों तक पहुँची आवाज़
अरे भाई, यह गाड़ी किसकी
कर लो एक किनारे
भगे हम दोनो
मैं फिर ड्राइविंग सीट पर
और तुमने फिर टिका लिया
अपना सिर मेरे कंधे पर
पकड़कर मेरा हाथ,
मैंने ऑन किया म्यूज़िक 
बजने लगा एक पुराना गीत-
"साथिया तूने क्या किया?
बेलिया ये तूने क्या किया?"
तुमने देखा मुझे
मैंने तुम्हें
और हमारी मुस्कान 
अलौकिक हो गयी!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
17/09/2020

Sunday 20 September 2020

रात चाँदनी ने लिखे : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे


अधरों पर मुस्कान थी, बाँहों में मनमीत।
रात चाँदनी ने लिखे, सदियों लम्बे गीत।।

अदा सुनहरी प्रेम की, चॉकलेट-सा टोन।
‘चल झूठे’ उसने कहा, काट दिया फिर फ़ोन।।

कैसे प्रिय से बात हो, व्यर्थ गये सब ‘वर्क’।
लाख कोशिशें कर चुकी, बैरी है ‘नेटवर्क’।।

रहे बदलते करवटें, जागे सारी रात।
पहले उनसे फ़ोन पर, हो जाती थी बात।।

महुआरे-से दो नयन, बाँते हैं शहतूत।
सरस प्रकृति का रूप वो, मैं वसंत का दूत।।

तुम मीरा तुम राधिके, तुम कान्हा की वेणु।
तन हूँ मैं तुम आत्मा, तुम बिन मैं, जस रेणु।।

मिले आज जब ‘बीच’ में, नैन हुए तब चार।
दिल मेरा बैंजो हुआ, मन हो गया गिटार।।

प्रियतम आओ हम रँगें, धरती से आकाश।
बोल रही है भावना, सच हो सकता काश।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
 18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com
 

Saturday 19 September 2020

आधी चॉकलेट : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

(7 क्षणिकाएँ)
1-
प्रेम में तुम्हारा 
मुझसे बतियाना
मेरे भीतर भर देता है 
आनन्द का असीम सागर,
मन निर्मल तरंगों में 
खोकर 
हो जाता है 
आकाश।

2-
मेरी बाँहों में 
आकर तुम 
महसूस करती हो
जितना सुरक्षित ख़ुद को,
तुम्हारे नेह की 
परिधि में 
मैं भी 
महसूस करता हूँ 
यही।

3-
तुम्हारी पीड़ा- मेरी
मेरी पीड़ा- तुम्हारी 
आओ! तुम्हारी हथेली में 
अपनी पलकों से
रचा दूँ
अपने नाम की 
मेंहदी।

4-
आमने-सामने
मैं और तुम,
मध्य में-
प्रबल अनुभूतियाँ 
निष्काम प्रेम की, 
मुस्कुराती रहो तुम बस,
मैं निहारता रहूँ।

5-
हाँ, उड़ो जी भर अम्बर में 
मेरे हाथ
पंख बनकर
रहेंगे तुम्हारे साथ,
निराश पलों में 
देख लेना मेरी ओर 
बिखेर कर 
चुटकी भर मुस्कान।

6-
आज तुमने दी
अपने हिस्से से
आधी चॉकलेट मुझे
असमंजस में मैं 
खाऊँ/या सहेज लूँ 
अलौकिक है-
यों तुम्हारा चॉकलेट देना।

7-
फिर तुम्हें देखा आज
गोटेदार लहँगे में 
तुम्हारा अनुपम सौन्दर्य 
देखकर लजा रही थीं
अप्सराएँ, 
और तुम्हारी क्यूट मुस्कान 
फिर अन्तर्निहित हो गयी
हृदय में मेरे।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com 

Monday 27 July 2020

बाबा तुलसीदास : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'


शब्द-शब्द नव चेतना, छन्द भरें उल्लास। 
कवियों में सिरमौर हैं, बाबा तुलसीदास।।

कालजयी है लेखनी, अतुल शब्द विन्यास।  
रचे अनूठे छन्द जो, बाबा तुलसीदास।।

मिले अनोखी शान्ति तब, फैले मधुर सुवास।
हमने जब भी पढ़ लिया, बाबा तुलसीदास।।

मानस की चौपाइयाँ, हरतीं दुख-संत्रास।
दिये हमें संजीवनी, बाबा तुलसीदास।।

राम नाम का मन्त्र है, जीवन का विश्वास। 
शब्द-शब्द में कह गये, बाबा तुलसीदास।।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
veershailesh@gmail.com 
27/07/2020

Monday 1 June 2020

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के माँ पर विशेष हाइकु

1-
पिता का ख़्वाब
माँ ने दिया हौसला
मुठ्ठी में नभ।

2-
सीख अमोल
नेह की नभगंगा
माँ की घुड़की।

3-
टला संकट
लौटा प्रवासी पूत
मुस्कुरायी माँ।

4-
सुख क्या दुख
पोर-पोर ज़िन्दगी
काट गयी माँ।

5-
खलता मौन
बेटे नहीं उठाते
अम्मा का फ़ोन।

6-
देता झिड़की
तो भी चाहती अम्मा
पूत का शुभ।

7-
बहुत रोयी
बिछड़ा जब वह
आख़िर माँ थी।

8-
प्यार ही प्यार
हर सीमा से परे
मम्मी का प्यार।

9-
घंटों से रोता
चुप हो गया डुग्गू
माँ की थपकी।

10-
प्रेम, करुणा
धैर्य, क्षमा, साहस
सब कुछ माँ।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com


Monday 18 May 2020

पाई-पाई जोड़ रहे थे

अच्छा है अब चुप रहना।

तुम मगन रहो अपनी दुनिया में
हम मगन रहें अपनी दुनिया में
अपनी-अपनी
दुनिया सबकी
चलते-चलते क्या कहना।

तुम उलझे हरदम गुणा-भाग में
हम रचे-बसे थे सत्य-राग में
अपना-अपना
दृष्टिकोण है
सबको इक दिन है ढहना।

तुम पाई-पाई जोड़ रहे थे
क्षण-क्षण सम्बन्ध मरोड़ रहे थे
जोड़-घटाना
दुनियादारी
संग समय के सब बहना।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com


Tuesday 5 May 2020

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के बेटी केन्द्रित हाइकु

बिटिया सृष्टि
चहकता संसार
बिटिया दृष्टि।

याद आ गये
गेंदा-गुलाब-जूही
हँसी बिटिया।

मोद मनाओ
बिटिया घर आयी
सोहर गाओ।

बेटी नभ में
जग का बोझ धरे
उड़ान भरे।

पिता मगन
शिखर पर बेटी
छूती गगन।

भीगे नयन
मायके आयी बिट्टो
यादें ही यादें।

आयी मायके
चहकती गुड़िया
ख़ुशी ही ख़ुशी।

विहँसी सृष्टि
महका कण-कण
हँसी बिटिया।

देख सितारे
मचल गयी गुल्लू
आँसू ही आँसू।

तारे गिनती
सहेली को बताती
चाँद-सी बेटी।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com 


Friday 1 May 2020

विश्व श्रमिक दिवस पर विशेष हाइकु/हाइगा : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

लेकर चला
पीठ पर महल
भूख सबल।

जी तोड़ श्रम
फावड़े पर भारी
रोटी की धुन।

हाथ हथौड़ा
पीठ पर तनय
श्रम की देवी।

कर्म ही धर्म
साहस ही सौन्दर्य
श्रम-देवियाँ।

पेट की भूख
ईंट-भट्ठा ही घर
श्रम विकल्प।

भूख चाहत
खो गया बचपन
बने श्रमिक।

©   डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005




Wednesday 29 April 2020

जा छिपा चाँद

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के प्रकृति और पर्यावरण पर आधारित 15 हाइकु
*
आ मन नच
नदी-नौका-पर्वत
सपने सच।
*
जल-जीवन
व्यर्थ हैं जल बिन
'शुक्र'-'मंगल'।
*
मैं बढूँ आगे
जल-धार चीरता
सूर्य बुलाता।
*
छीनते हम
धरा के आभूषण
दुखी है सृष्टि।
*
मन-विभोर
छायी है हरियाली
मन ही चोर।
*
मनु-संतति
जोश में होश खोयी
वसुधा रोयी।
*
छाये बादल
मचल गयी निशा
जा छिपा चाँद।
*
सर्वत्र हरा
मगन है किसान
मगन धरा।
*
पानी ही पानी
पोर-पोर उमंग
भोर सुहानी।
*
बीता आषाढ़
मुदित है प्रकृति
पावस ऋतु।
*
किलकारियाँ
प्रकृति की गोद में
नौका भीतर।
*
क्या कर सके
सूरज की तपिश
नौका नदी में।
*
जब बचेंगे
जंगल-जलाशय
बचेंगे हम।
*
छाये बादल
उमस छू-मंतर
मन-कमल।
*
निहित प्राण
बूँद-बूँद जीवन
जल प्रमाण।
*
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com

Thursday 23 April 2020

सृष्टि मुस्कुरा उठी

- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
*
तुमने मुझसे कहा- प्राण हो तुम!
मैंने कहा- तुम चेतना!
एक हो गयी हमारी श्वासों की गति
एक हो गयीं हमारी धड़कनें
परस्पर आबद्ध हो गये-
हमारे संकल्प
हमारी आस्था
और हमारे विश्वास।
सृष्टि मुस्कुरा उठी-
देखकर हमारी जुगलबन्दी,
और मैंने तुम्हारे भाल पर
चिपका दिया रत्नजड़ित बिंदिया
तुम्हारे कपोल हो गये सूर्य की लालिमा से
एक दृष्टि धीरे से मेरी ओर
और मेरी बाँहों में
सम्पूर्ण सृष्टि,
तुम्हारा होना
मेरे होने का प्रमाण है,
बस यों ही रहो मेरे पास।
*

Sunday 5 April 2020

चलो सजनी दीप बालो : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

चलो सजनी
दीप बालो।।

आसुरी शक्तियों ने
फिर से रचा है
षड़यंत्र भीषण,
घुला विष हवाओं में
है हर क्षण यहाँ
इति का निमंत्रण।

बाती बनाओ
घृत-तेल डालो,
चलो सजनी
दीप बालो।।

हम करेंगे संहार
अपने शत्रु का
लेंगे जीत रण,
अपेक्षित संग सबका
सम्भव है यहाँ
श्वासों का वरण।

उर में अलौकिक
संकल्प पालो,
चलो सजनी
दीप बालो।।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

Friday 27 March 2020

जाने कैसा संकट छाया : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

चलो!
प्रेम के
कुछ पल जी लें।।

क़ैद गेह में
दुनिया सारी,
जाने कैसा
संकट छाया।
कहो!
चुपचाप
कटेंगे दिन कैसे
चलो!
प्रेम के
कुछ पल जी लें।।

अनजाना भय
खा डालेगा,
घोर निराशा
में मत डूबो।
सुनो!
हँसो अलि
फिर से रस घोलो।
चलो!
प्रेम के
कुछ पल जी लें।।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

Saturday 15 February 2020

तुम मेरी राधा : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

(10 क्षणिकाएँ)
1-
तुम बस जाती हो
बहुत गहरे अन्तर में 
और मैं 
पढ़ लेता हूँ 
तुम्हारी प्रत्येक चुप्पी,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा।

2-
देह से परे
बतियाती हैं आत्माएँ
एक-दूसरे के 
हृदय में बैठकर
जन्म-जन्मान्तर से परे,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा।

3-
तुम बाती 
मैं दीपक 
तुम भाव
मैं बुद्धि,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

4-
मिलो न मिलो
तुम मेरी चेतना 
मैं अविनाशी आत्मा 
हम अभिन्न 
हाँ,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

5-
मैंने अनुभूति की
प्रत्येक पल तुम्हारी 
तुम प्रकृति की संवाहक 
मौन में भी निरन्तर संवाद 
हाँ,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

6-
तुम कहो न कहो
मैंने पढ़ा 
तुम्हारे हृदय में 
अपने अनुराग के अमर पृष्ठ 
हाँ,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

7-
तुम नायिका
मैं नायक
क्षितिज के मुहाने पर 
मिलें शायद
हम कभी या कभी भी नहीं
कामनाओं से परे
आत्माओं का सौन्दर्य 
देता है अलौकिक आनन्द,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

8-
तुम भले हो मुझसे दूर 
किन्तु बतियाती हो
मेरी चेतना से
प्रत्येक क्षण 
समाहित हो मेरी 
प्रत्येक धारणा में,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

9-
सृष्टि के अस्तित्व में गुँथे 
हम दोनों,
चेतनाविहीन हैं श्वासें 
तुम मेरी आत्मा 
मैं तुम्हारा मन,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा।

10-
मन आह्लादित होता है
बाराम्बार
देखकर हृदय में 
तुम्हारी
रची-बसी प्रतिमूर्ति
अनूठा है
दो आत्माओं का मिलन,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com 
[क्षणिका]




Sunday 2 February 2020

विश्लेषण के क्रम में : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

तुमने कहा-
"जाकर दर्पण में स्वयं को निहारना
आज और सुन्दर दिखायी दोगे।"

मैंने जब
दर्पण में स्वयं को निहारा
दिखायी दी तुम
और तुम्हारी खिलखिलाती मुस्कान।

जानती हो, तुमने कहा-
"देख लिया दर्पण में
स्वयं का स्वरूप
पुरुष प्रकृति से आच्छादित है।"
और मैंने कहा- "हाँ, तुम सही हो।"

जानती हो, विश्लेषण के क्रम में
मैं यह जान पाया कि
सौन्दर्य के दर्शन शास्त्र का
प्रत्येक पक्ष
चेतना के मनोविज्ञान पर
स्पष्ट दृष्टि रखता है।

एक बात और-
तुम यथार्थ हो
और मैं भी,
दर्पण भी भ्रम नहीं है।

आभासी सत्ता से परे
वास्तविक सत्ता के
अस्तित्व को समझना
अति रोमांचकारी है
और इस रोमांचक यात्रा में
तुम मेरी
और मैं तुम्हारा।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र)
पिन कोड- 212601
veershailesh@gmail.com