Friday 2 December 2022
लिखता हूँ जब प्रेम पर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे
Sunday 6 November 2022
समय के प्राचीर पर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Sunday 16 October 2022
बिल्ली गयी तिहाड़ : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे
जब-जब जागी अस्मिता, तिनके बने पहाड़।
चूहों ने हड़ताल की, बिल्ली गयी तिहाड़।।
कहें भेड़िये तो कहें, सोलह दूनी आठ।
पढ़ते हैं अब मेमने, गिनतारा के पाठ।।
हवा मुड़ी तो मुड़ गये, रँगे-पुते किरदार।
टूटा पत्ता अडिग था, चुना गया सरदार।।
मुख में कालिख पोतकर, भागा उल्टे पाँव।
आज सत्य ने झूठ का, चित्त किया हर दाँव।।
आयी हिरनी सामने, रख दी अपनी बात।
गया भेड़िया जेल में, बदल गये हालात।।
दीवारों से क्यों लड़ूँ, हर खिड़की स्वच्छन्द।
हाथ लिये हूँ चाबियाँ, कर दूँगा पट बन्द।।
बड़े हुए, तुम कह रहे, बेच-बेचकर इत्र।
होगा पर्दाफ़ाश तो, क्या बोलोगे मित्र।।
छोड़ा कभी न हौसला, लगा न जीवन भार।
कंटक पग-पग थे बिछे, फिर भी पहुँचा पार।।
अविचल था जलधार में, 'वीर' धीर था छत्र।
बहे वेग के संग सब, दुर्बल-निर्बल पत्र।।
चार घड़ी की बात है, दुनिया लेगी नाम।
आया आधी रात में, सूरज का पैग़ाम।।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com
Monday 15 August 2022
राष्ट्रीय चेतना के हाइकु - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Thursday 21 July 2022
लघुकथा/नवजीवन - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Sunday 10 July 2022
लघुकथा/दुआएँ - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Wednesday 6 July 2022
लघुकथा/राजकुमार मिल गया - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Sunday 1 May 2022
श्रमिक दिवस : तीन ताँका - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Tuesday 29 March 2022
पीड़ा जीवन-दृष्टि है : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे
Sunday 27 March 2022
अभी यहाँ मत आना - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
आत्मावलोकन के पूर्व की अवस्था
उत्साह/बेसब्री/और आतुरता से
आवृत होती है
कछुए की गति की भाँति उमड़ती भावनाएँ
जा मिलती हैं
खरगोश की भाँति दौड़ती कल्पनाओं से।
ओर-छोर/पीर-पोर
निरावृत होता है सब कुछ
अबोध बालक के कौतूहलपूर्ण मस्तिष्क की तरह
जारी रहता खेल बदस्तूर
जब तक नहीं आ जाता
काँव-काँव की टेर लगाता
कौवा मुँडेर पर।
आत्मावलोकन की स्थिति में
खुलते हैं कपाट मस्तिष्क के
पुनर्जाग्रत होती है चेतना
चिन्तन-धार छलछलाने लगती है
अनायास
लौट आती है खोयी हुई चेतना।
सार्थक-निरर्थक
सत्य-असत्य
शाश्वत-क्षणभंगुर
सर्वस्व स्पष्ट हो जाते हैं
लौकिक माँ के अलौकिक स्वरूप की तरह बेमानी हो जाती हैं जय-पराजय
छू-मंतर हो जाती हैं मन की कुंठाएँ
सारा कलुष झुलस जाता है
विचारों की सात्विक किरणों से
हलचल होती है धरा में
सिहर जाता है व्योम
सुनायी देती है एक तेज़ आवाज़
किसी तारे की
भाई! अभी यहाँ मत आना
जब तक हो सके
धरा पर रहकर
प्रकाश फैलाओ
वहीं टिमटिमाओ।
□
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष-अन्वेषी संस्था)
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Wednesday 23 March 2022
बाथिंग टब में मौज : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Monday 7 March 2022
चोका - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Monday 28 February 2022
सारा शहर जंगल हो रहा है - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
अर्थव्यवस्था पर हावी है बाज़ारवाद
बिक रही है हर चीज़
बिक रही है देह
बिक रहे हैं
आदमी/औरत/और न जाने क्या-क्या...
सब कुछ सस्ता है
सबसे सस्ता
ईमान है।
सारा शहर जंगल हो रहा है
और जंगल का शेर
तानाशाह हो रहा है
तानाशाह बेच रहा है
सब कुछ
सब कुछ।
मण्डियाँ सजी हुईं हैं
हर चीज़ बिकाऊ है
बोलियाँ लग रही हैं
आम आदमी सिर्फ़ भेड़ है
सुन रहा हूँ कि शेर बेच रहा है
सारा शहर
किसी भूखे भेड़िये के हाथ।
भेड़िये ने कल ही कहा है
कि वह करेगा सुरक्षा
सभी भेड़ों की/बकरियों की/सभी की...
सभी को देगा रोज़गार
और देगा
भूख से तिलमिलाये लोगों को
अनाज,
बैलों को बिना किसी श्रम के
चारा
ऊँटों को राहत की थैलियाँ।
कुछ बता रहे हैं इसे
औद्योगिक क्रान्ति
अर्थशास्त्र का ककहरा न जानने वाले
समझा रहे हैं
नयी अर्थव्यवस्था का गणित
बता रहे हैं अब
ख़ुशहाल हो जायेगा शहर
और सभी के घर
भर जायेंगे
सोने की गिन्नियों से।
शेर बता रहा है
अपने निर्णयों के लाभ और भावी परिणाम
पीटी जा रही हैं तालियाँ
थोक के भाव
भेड़िये की पाकर शह
सियार कर रहे हैं हर ओर
हुआँ-हुआँ
ज़ोर-शोर से,
टीवी चैनलों पर चल रही हैं
'लाइव डिबेट्स'
कि ऐसा होगा
आने वाले दिनों में
शहर का रुतबा।
अब बोली लग रही है शहर की
आसमान का रंग
बदल जायेगा कुछ दिन बाद
अभी
बोलना मना है।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
veershailesh@gmail.com