Friday 2 December 2022

लिखता हूँ जब प्रेम पर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे

मौसम ने जादू किया, हुई अनोखी बात।
सूरज के 'मैसेज़' पढ़े, चंदा आधी रात।।

उनके मीठे बोल से, मिलता पल-पल क्षेम।
सावन के आग़ोश में, बढ़ता जाता प्रेम।।

वे शायद नाराज़ हैं, नहीं करेंगी 'रीड'।
ढूँढ़ रहे 'इनबॉक्स' में, 'मैसेज़' हैं 'अनरीड'।।

श्वास-श्वास निःश्वास-सी, शब्द-शब्द निःशब्द।
लिखता हूँ जब प्रेम पर, चुक जाते क्यों शब्द।।

बातें उसकी रसभरी, देतीं मिसरी घोल।
मन झंकृत हो नाचता, शब्द-शब्द अनमोल।।

सदियों से बेचैन हूँ, कब आओगे पास?
आज मही ने जब कहा, मौन हुआ आकाश।।

रचे-बसे जब प्रेम में, मुखर हुआ विश्वास।
धड़कन तब पी से कहे, आओ मेरे पास।।

दर्द बँटाती 'माँ' सदा, दर्द बँटाती 'हीर'।
नेह मिले ममता तले, घट जाती है पीर।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com

Sunday 6 November 2022

समय के प्राचीर पर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

[३ क्षणिकाएँ]
कोमल संवेदनाओं के 
बिन्दु-बिन्दु 
यथार्थ की सतह पर आकर
मिट गये, 
उमड़-घुमड़ रहा है
अश्रु-सरिता के तट पर 
भावनाओं का प्रबल वेग!
पाषाण हो गयीं
भावनाएँ,
टूट कर 
बिखर गये-
युग-युगों के 
संकल्प!
अहंकार का 
झंझावात 
आया,
उड़ा ले गया
समय के प्राचीर पर
श्रम से   बनाया
नेह का छप्पर!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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Sunday 16 October 2022

बिल्ली गयी तिहाड़ : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे

जब-जब जागी अस्मिता, तिनके बने पहाड़।
चूहों ने हड़ताल की, बिल्ली गयी तिहाड़।।

कहें भेड़िये तो कहें, सोलह दूनी आठ।
पढ़ते हैं अब मेमने, गिनतारा के पाठ।।

हवा मुड़ी तो मुड़ गये, रँगे-पुते किरदार।
टूटा पत्ता अडिग था, चुना गया सरदार।।

मुख में कालिख पोतकर, भागा उल्टे पाँव।
आज सत्य ने झूठ का, चित्त किया हर दाँव।।

आयी हिरनी सामने, रख दी अपनी बात।
गया भेड़िया जेल में, बदल गये हालात।।

दीवारों से क्यों लड़ूँ, हर खिड़की स्वच्छन्द।
हाथ लिये हूँ चाबियाँ, कर दूँगा पट बन्द।।

बड़े हुए, तुम कह रहे, बेच-बेचकर इत्र।
होगा पर्दाफ़ाश तो, क्या बोलोगे मित्र।।

छोड़ा कभी न हौसला, लगा न जीवन भार।
कंटक पग-पग थे बिछे, फिर भी पहुँचा पार।।

अविचल था जलधार में, 'वीर' धीर था छत्र।
बहे वेग के संग सब, दुर्बल-निर्बल पत्र।।

चार घड़ी की बात है, दुनिया लेगी नाम।
आया आधी रात में, सूरज का पैग़ाम।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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Monday 15 August 2022

राष्ट्रीय चेतना के हाइकु - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'


मिली आज़ादी
भारत माँ के लाल
हुए शहीद।

मन तिरंगा
है प्रत्येक उर में
प्रेम की गंगा।

सपने व्योम 
आज़ादी है अमृत 
संकट मोम।

पीढ़ियाँ होम
तब जाकर दिखा
मुक्ति का व्योम।

जोश में मिट्टी 
हवा में लहराया
जब तिरंगा।

अखण्ड स्वर
आज़ादी के मायने
सम्प्रभु राष्ट्र।

गर्वित राष्ट्र
रोम-रोम उल्लास 
जय भारत।

अतुल्य गाथा
भारत अद्वितीय 
नत है माथा।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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Thursday 21 July 2022

लघुकथा/नवजीवन - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

"तुम लोग कुछ और क्यों नहीं करते? यों ताली पीटकर और गा-बजाकर कब तक काम चलेगा? समय के साथ बदलते क्यों नहीं?" लड़का होने की आहट पाकर घर आयी किन्नरों की टोली को मोटा शगुन देते हुए आरव ने एक प्रश्न हवा में उछाल दिया तो एक किन्नर ने उत्तर भी दे दिया- "और हम कर भी क्या सकते हैं? हमारे घरवाले हमारे सगे तो अपने हुए नहीं। और तुम कहते हो कि", तभी दूसरा किन्नर बोल पड़ा- "बाबू! आपका इतना बड़ा बिज़नेस है, आप ही कोई काम दे दो। हम छोड़ दें ये सब। हम सब गँवार नहीं, कुछ पढ़े-लिखे भी हैं।" आरव के चेहरे की हवाइयाँ उड़ने लगीं कि टोली में से एक किन्नर और बोल पड़ा- "साहब! आपका समाज हमें बख़्शीश तो दे सकता है, पर पेट भरने के लिए कोई काम नहीं।" 

पास बैठी आरव की माँ भी बोल पड़ी- "जब तूने प्रश्न किया था तो अब इनको उत्तर भी दे।" "इस टोली के सभी सदस्य आज अभी से मेरी कम्पनी के इम्पलॉयी होंगे। काम का बँटवारा कल कर दूँगा।" आरव के इतना कहते ही नवजात शिशु का क्रन्दन वातावरण में अलौकिक मिठास घोलने लगा। मानो नवजीवन के उत्सव में आकाश से पुष्पवर्षा हो रही थी।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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Sunday 10 July 2022

लघुकथा/दुआएँ - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

चारबाग़ बस-स्टैण्ड से निकलकर बस बँगला बाज़ार आकर रुकी थी कि सवारियों के साथ-साथ दो किन्नर भी आ गये। दुआओं के बदले सभी से बख़्शीश लेने लगे। कुछ ने बख़्शीश दी और दुआएँ लीं तो कुछ ने मुँह चुरा लिये। कुछ ने अपने चेहरे चौड़े किये और तरह-तरह की बातें करने लगे। 

अब तक एक किन्नर पीछे की सीट पर बैठे दिनेश बाबू तक पहुँच गया था। "ऐ गुमसुम बाबू! कुछ दो।" वे अपने में ही खोये रहे और कुछ नहीं बोले। "अरे बाबू! इतना उदास क्यों।" "कोई बात नहीं। माता रानी सब दुख हर लें और सदा ख़ुश रहो आप, मेरी दुआ है।" इतना कहकर किन्नर जैसे ही मुड़ा, भतीजे की मौत से टूटे हुए दिनेश बाबू उसके हाथ में  दो सौ की नोट रखते हुए फफक पड़े- "माता रानी तुम्हें भी ख़ुशहाल रखें मेरे बच्चे।"

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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Wednesday 6 July 2022

लघुकथा/राजकुमार मिल गया - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

"देखो मेरा पीछा मत करो, तुम कल वहाँ मिले थे और आज यहाँ। तुम चाहते क्या हो!" एक श्वास में मीना विजेन्दर से कह गयी। "यही कि तुमसे मोहब्बत है हमें और यही कि तुम्हें अपना बनाना है।" विजेन्दर ने भी अपने मन की उसे बता दी। 
"देखो तुम जानते नहीं कि मैं कौन हूँ।" 
"ख़ूब जानते हैं। दरोगा साहब की बेटी हो और कौन हो! हम बचपन से तुम्हारे दीवाने हैं। हिम्मत जुटाकर कल से तुम्हारा पीछा कर रहे हैं और तुम हो कि बात ही नहीं करती।"
"पर तुम नहीं जानते कि"
"कि दरोगा साहब हमारी हड्डी-पसली एक कर देंगे और क्या!"
"वह बात नहीं!"
"तो फिर"
"मैं किन्नर हूँ।" पहली बार अपने जीवन का अधूरा सच मीना किसी से एक झटके में कह गयी।
विजेन्दर एकटक उसे देखने लगा और बुदबुदाया- "पर तुम तोऽऽऽ"
उसे बीच में रोकते हुए मीना बोल पड़ी-
"प्यार तो अब तुम्हारा हवा हो गया होगा!"
"बिलकुल नहीं। तुम हाँ कह दो, तो सारी दुनिया एक ओर। मैं और तुम एक ओर।" इस बार एक श्वास में विजेन्दर बोल गया। 
मीना ने देखा कि आसमान झुक कर उसका अभिनन्दन कर रहा था। उसने झटपट पर्स से अपना मोबाइल निकाला और उधर से हैलो का स्वर सुनायी पड़ते ही चहक कर बोल पड़ी- "राजकुमार मिल गया पापा।"

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Sunday 1 May 2022

श्रमिक दिवस : तीन ताँका - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

खोजता श्रम 
ईंट-रोड़ों के बीच
रोटी का हल,
देह हुई विदेह
भूख नीलकमल।
खोजतीं नित्य
सुलगती हड्डियाँ
रोटी के मंत्र,
मगन अर्थशास्त्र
मगन लोकतंत्र।
पेट में पीठ
या है पीठ में पेट
सभ्यता ढीठ,
श्रमिक का संत्रास 
बाँच सकता काश।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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Tuesday 29 March 2022

पीड़ा जीवन-दृष्टि है : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे

पल-पल भारी हो गये, दुख सहते दिन-रात। 
जोड़े हमने उम्र भर, पर न जुड़े जज़्बात।। 

कैसा यह संत्रास है, कटे-कटे से हाथ। 
पीड़ा-आँसू रात दिन, केवल अपने साथ।। 

चीखूँ जितना दर्द में, होती उतनी टीस। 
ख़ुशियों में मेरे रही, पीर हमेशा बीस।। 

कभी निकलती आह है, कभी निकलती चीख। 
चार पलों का मोद मन, माँग रहा है भीख।।

सब कुछ मेरे पास है, पीड़ा, दुख, संत्रास। 
जब मैंने सुख से कहा, लौटा बहुत उदास।। 

दुख संगी ताउम्र है, सुख पल दो पल साथ। 
बहुत सोचकर दर्द का, थाम लिया है हाथ।। 

पीड़ा जीवन-दृष्टि है, सुख है संगी क्षुद्र। 
अविरल आँसू-वृष्टि से, निकला महासमुद्र।। 

सुख के आगे दुख बसा, दुख के आगे जीत। 
जो उलझा सुख-फेर में, वह रहता भयभीत।। 

भरी सभा में आज मैं, फूँक रहा हूँ शंख। 
दुख का परचम है सदा, सुख चिड़िया के पंख।। 

नज़र फेरकर हैं गये, जबसे वे बेदर्द। 
दरिया आँखों से बहे, और देह से दर्द।। 

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष-अन्वेषी संस्था)
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
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Sunday 27 March 2022

अभी यहाँ मत आना - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

आत्मावलोकन के पूर्व की अवस्था 
उत्साह/बेसब्री/और आतुरता से 
आवृत होती है 
कछुए की गति की भाँति उमड़ती भावनाएँ
जा मिलती हैं 
खरगोश की भाँति दौड़ती कल्पनाओं से।
ओर-छोर/पीर-पोर
निरावृत होता है सब कुछ 
अबोध बालक के कौतूहलपूर्ण मस्तिष्क की तरह 
जारी रहता खेल बदस्तूर 
जब तक नहीं आ जाता 
काँव-काँव की टेर लगाता
कौवा मुँडेर पर। 

आत्मावलोकन की स्थिति में 
खुलते हैं कपाट मस्तिष्क के 
पुनर्जाग्रत होती है चेतना 
चिन्तन-धार छलछलाने लगती है
अनायास 
लौट आती है खोयी हुई चेतना।

सार्थक-निरर्थक 
सत्य-असत्य 
शाश्वत-क्षणभंगुर 
सर्वस्व स्पष्ट हो जाते हैं
लौकिक माँ के अलौकिक स्वरूप की तरह बेमानी हो जाती हैं जय-पराजय
छू-मंतर हो जाती हैं मन की कुंठाएँ
सारा कलुष झुलस जाता है 
विचारों की सात्विक किरणों से
हलचल होती है धरा में 
सिहर जाता है व्योम 
सुनायी देती है एक तेज़ आवाज़ 
किसी तारे की 
भाई! अभी यहाँ मत आना 
जब तक हो सके 
धरा पर रहकर
प्रकाश फैलाओ 
वहीं टिमटिमाओ।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष-अन्वेषी संस्था)
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
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Wednesday 23 March 2022

बाथिंग टब में मौज : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

बूँद-बूँद की क़ीमत जानो
भाषण में
कल बोल रहे थे
नेता रामधनी।

जिनके घर के कुत्ते करते
बाथिंग टब में मौज
पूल नहाने जाते लेकर 
नौकर-चाकर फ़ौज,
पानी पेरिस से मँगवाते
कोरा ज्ञान 
बाँटते हर क्षण 
सपना हनी-मनी।

दोनो मीटिंग पानी मिलना
जिस बस्ती में ख़्वाब 
आलीशान खड़ा है बँगला
पाट दिया तालाब,
ऊपर तक है पहुँच मुकम्मल
न्यूज़ बताती
उनके दम से
फिर सरकार बनी।

जिनके कारण प्यासे तड़पें
आती तनिक न शर्म 
पानी-पानी ख़ुद पानी है
ऐसे जिनके कर्म, 
शोषित पूछ रहे प्रश्न मगर
वे क्या देंगे उत्तर 
जिनकी
आँखें ख़ून सनी।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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Monday 7 March 2022

चोका - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

बोले बाबूजी
उमस बहुत है
चलो घूमने,
महका कोना-कोना 
चहके बच्चे 
सब लगे झूमने,
चाचू चहके
चहके दादा-दादी 
करेंगे मस्ती
और गाँव की सैर,
खायेंगे आम
वट की छाँव तले
आता आनन्द 
वहाँ नदी में तैर,
सेल्फ़ी भी लेंगे 
कुछ नया करेंगे 
सभी झूमते
अपनी कहकर,
वहीं रुकूँगा
आख़िर बाबूजी ने 
रख ही डाले
दो कुर्ते तहकर,
ए जी! दो साड़ी
रख लेना मेरी भी
अभी काम है
छुटके के बाबूजी! 
सबने देखा
मुस्कानों की टोली का
कर स्वागत
अम्मा लेकर आयी
कुछ खाने को
खिले हुए चेहरे 
ख़ुश जाने को-
होने लगी तैयारी,
खाकर सब्जी-पूरी।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
पिन कोड- 212601

Monday 28 February 2022

सारा शहर जंगल हो रहा है - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

अर्थव्यवस्था पर हावी है बाज़ारवाद
बिक रही है हर चीज़ 
बिक रही है देह
बिक रहे हैं 
आदमी/औरत/और न जाने क्या-क्या...
सब कुछ सस्ता है
सबसे सस्ता 
ईमान है।
सारा शहर जंगल हो रहा है 
और जंगल का शेर
तानाशाह हो रहा है
तानाशाह बेच रहा है 
सब कुछ 
सब कुछ।

मण्डियाँ सजी हुईं हैं
हर चीज़ बिकाऊ है
बोलियाँ लग रही हैं 
आम आदमी सिर्फ़ भेड़ है
सुन रहा हूँ कि शेर बेच रहा है 
सारा शहर
किसी  भूखे भेड़िये के हाथ।

भेड़िये ने   कल  ही कहा है  
कि वह करेगा सुरक्षा
सभी भेड़ों की/बकरियों की/सभी की...
सभी को देगा रोज़गार 
और देगा 
भूख से तिलमिलाये लोगों को 
अनाज,
बैलों को बिना किसी श्रम के 
चारा
ऊँटों को राहत की थैलियाँ।
कुछ बता रहे हैं इसे
औद्योगिक क्रान्ति 
अर्थशास्त्र का ककहरा न जानने वाले
समझा रहे हैं 
नयी अर्थव्यवस्था का गणित 
बता रहे हैं अब 
ख़ुशहाल हो जायेगा शहर 
और सभी के घर
भर जायेंगे 
सोने की गिन्नियों से।
शेर बता रहा है
अपने निर्णयों के लाभ और भावी परिणाम
पीटी जा रही हैं तालियाँ 
थोक के भाव 
भेड़िये की पाकर शह
सियार कर रहे हैं हर ओर
हुआँ-हुआँ
ज़ोर-शोर से,
टीवी चैनलों पर चल रही हैं 
'लाइव डिबेट्स'
कि ऐसा होगा 
आने वाले दिनों में 
शहर का रुतबा।

अब बोली लग रही है शहर की
आसमान का रंग 
बदल जायेगा कुछ दिन बाद
अभी 
बोलना मना है।


© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
veershailesh@gmail.com

Friday 11 February 2022

'हाँ' में 'हाँ' कह दिया : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की क्षणिकाएँ

मैं प्रबल भावनाओं से 
ओत-प्रोत
वह सुनती रही मुझे
और कह गयी 
एक स्वर में
कि धरा ने 
अम्बर की
'हाँ' में 'हाँ' कह दिया।
उसकी धड़कनों में मैं
मेरी श्वाँस-श्वाँस में वह
प्रेम की प्रत्येक धुन 
छू रही है 
अपनी पराकाष्ठा को,
आज सूरज-चाँद 
मिलकर गायेंगे
सातों जनम तुम 
एक-दूसरे के।
निश्चल कंधों का
पाकर आसरा
निश्छलता ने 
निश्चय के साथ 
कहा-
"हाँ",
वसन्त का विस्तृत हो गया आकार
मास से वर्ष 
वर्ष से युगों-युगों तक।
संयोग यों ही नहीं होते
मिलें न मिलें
शाश्वत प्रेम 
दैहिकता से दूर 
आत्मीयता का आकांक्षी,
हम हृदय से बतियाते
कोसों दूर 
निश्छल प्रेम मे रमे
दो अलौकिक पंछी।
एक सुबह
हम-तुम 
एक दोपहर 
हम-तुम 
एक शाम 
हम-तुम 
अनवरत् यही क्रम,
तुम्हारे हृदय में मैं ही मैं
और मेरे हृदय में
तुम ही तुम।
उसने कहा-
तुम तुम हो।
मैंने कहा-
तुम सबकुछ।
धरा हो गयी गुलाबी
और आसमान में 
उग आये-
असंख्य इन्द्रधनुष।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
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Saturday 5 February 2022

वसन्त पर आधारित विशेष हाइकु : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

मन मुदित
प्रतीक्षाओं का अन्त
छाया वसन्त।
मन-पतंग
गुलाबी कल्पनाएँ
लाया वसन्त।
झाँका फागुन 
व्योम की दुबारी से
मन-बासंती।
मन-मदन 
चले आये मनाने 
रूठे सजन।
बदले रंग
अवनि क्या अम्बर 
समय संग।
पुराना गया 
शुद्ध पर्यावरण 
सर्वस्व नया।
हँसे मदन 
हो गया शिशिरान्त
मन अशान्त।
बुझे न आग 
जब घी डाले माघ
सुरीले राग।
बहकी मैना 
मैं-ना, मैं-ना करती 
वसन्त रैना।
जी भर कूकी 
वसन्तसखा संग 
वसन्तदूती।
गुलाबी गाल 
हुए और गुलाबी 
वासन्ती जादू।
कोहरा छँटा 
मधुमास बिखेरे 
मादक छटा।
फागुनी व्योम 
पीताम्बरा धरती 
करें चैटिंग।
खिलीं फसलें
खिले टेसू के फूल 
मन मचले।
चले मदन 
मुरझाया संयोग 
हँसा वियोग।
धरा लजायी 
पढ़कर ई-मेल 
व्योम ने भेजा।
वसन्त मस्त
मस्त वेलेंटाइन 
पस्त वियोग।
पुष्पबाण-से 
धँसे हृदयान्तर 
पुराने पत्र।
नवचेतना 
आनन्द व उल्लास 
माघ महीना।
भौंरों की गूँज 
फूटीं नयी कोपलें 
आया वसन्त।
मिले वे गले
प्रेम के वशीभूत 
दुनिया जले।
चहका मन
हरियाईं उम्मीदें 
आया वसन्त।
नवमल्लिका
संकल्प की दुविधा 
काम के बाण।
कूकी कोयल
मगन हुए भौंरे
वसन्त-यात्रा।
काम की माया 
मदनोत्सव छाया 
वसन्त आया।
बौराये आम
उतरे रतिराज
बौरायी धरा।
चहकी मैना
उतरे रतिराज
कन्दर्पोत्सव।
स्वर्ण सरसों 
प्रकृति काममय 
करे ठिठोली।
मेड़ पे मेड़ 
घूम रहे बोराये 
आम के पेड़।
सन्त-असन्त
रतिवर के तीर
मन-वसन्त।
लाइक करे
फ़ेसबुक कमेण्ट
पीतवसना।
सौ-सौ की नोटें 
महबूब से दूर 
यादें कचोटें।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
veershailesh@gmail.com
कलाकृति   :  रंजना कश्यप 

जय शारदे : तीन ताँका - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

उर कपाट 
खोलती माँ सर्वदा
दे बुद्धि-बोध
अंधकार हरती
प्रकाश है भरती।
जय शारदे
माँ भरो संचेतना
बुद्धि उर में
मैं हूँ शरणागत 
करता हूँ अर्चना।
उर में जले
ज्योति सदा ज्ञान की
नमन माता
शरणागत पुत्र 
है मस्तक झुकाता।
- डॉ. शैलेष  गुप्त 'वीर'
फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)

Friday 28 January 2022

गणतंत्र उत्सव : चार ताँका - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

जीत की गाथा
गणतंत्र उत्सव 
हर्ष ही हर्ष
एक सूत्र में गुँथा
मेरा भारतवर्ष।
गूँजते बोल
तिरंगे की शान में
अनवरत 
धरा से व्योम तक
जय भारतमाता।
मूक चेतना
मूल्य स्वतंत्रता का
नहीं जानती
स्वयं के अस्तित्व को
नहीं पहचानती।
इतिहास में
अंकित हर एक
पंक्ति मानती
रक्त की बूँद-बूँद 
स्वतंत्रता जानती।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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Monday 10 January 2022

विश्व हिन्दी दिवस : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के हाइकु

हिन्दी है मन
काया भारतवर्ष 
हर्ष ही हर्ष।
छुआ हमने 
जब-जब आकाश 
मुस्कायी हिन्दी।
अपनापन 
पुकारे बिन्दी-बिन्दी 
हम हैं हिन्दी।
है हिन्दी प्यारी 
अस्मिता वतन की 
माता हमारी। 
सब तो मिला
हिन्दी की छाँव तले
आकाश खिला।
है चिन्दी-चिन्दी
अपनों से ही तंग
भाल की बिन्दी।
जस का तस
नहीं बदला कुछ
हिन्दी दिवस।
छाये हुए हैं
अंग्रेज़ी के चमचे
हिन्दी-उत्सव।
दिन विशेष
गा रहे हैं कल से
हिन्दी के गीत।
बन्दी ज़मीर 
राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा
कौन गम्भीर।
हिन्दी दिवस
आयी फिर से याद 
बरस बाद।
मन है हिन्दी
हिन्दी है हिन्दुस्तान
भाषा महान।
हिन्दी सर्वदा
देती मन को तोष
जय-उद्घोष।
लिपि विश्व में
अकेली वैज्ञानिक 
देवनागरी।
प्यार ही प्यार 
मातृभाषा का गर्व 
उन्नति-द्वार।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र)
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