Friday 2 December 2022

लिखता हूँ जब प्रेम पर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे

मौसम ने जादू किया, हुई अनोखी बात।
सूरज के 'मैसेज़' पढ़े, चंदा आधी रात।।

उनके मीठे बोल से, मिलता पल-पल क्षेम।
सावन के आग़ोश में, बढ़ता जाता प्रेम।।

वे शायद नाराज़ हैं, नहीं करेंगी 'रीड'।
ढूँढ़ रहे 'इनबॉक्स' में, 'मैसेज़' हैं 'अनरीड'।।

श्वास-श्वास निःश्वास-सी, शब्द-शब्द निःशब्द।
लिखता हूँ जब प्रेम पर, चुक जाते क्यों शब्द।।

बातें उसकी रसभरी, देतीं मिसरी घोल।
मन झंकृत हो नाचता, शब्द-शब्द अनमोल।।

सदियों से बेचैन हूँ, कब आओगे पास?
आज मही ने जब कहा, मौन हुआ आकाश।।

रचे-बसे जब प्रेम में, मुखर हुआ विश्वास।
धड़कन तब पी से कहे, आओ मेरे पास।।

दर्द बँटाती 'माँ' सदा, दर्द बँटाती 'हीर'।
नेह मिले ममता तले, घट जाती है पीर।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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