Saturday 19 December 2020

रेत में घर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

(क्षणिकाएँ)
समय की 
टेढ़ी चाल ने
अंकुश लगाया,
महल
सपनों का-
भरभराया।
□ □
आँखों ने बुने सपने
ओझल हो गयी
हृदयस्थ गौरैया,
नहीं बनाऊँगा
अब कभी
रेत में घर।
□ □
मौसम काफ़ी सर्द है
और हवाओं में नमी है
जानता हूँ-
बदलेगा यह
आयेगा/जायेगा,
पर टूट जायेगा
सपनों का नीड़
जानता हूँ यह भी।
□ □
खिड़की खुली तो रहेगी
धूप जब चाहे
आये-जाये,
बची रहेगी मुस्कान
तो अवश्य मुस्कुरायेगा-
घरौंदा
आशाओं का।
□ □

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' 
doctor_shailesh@rediffmail.com

[क्षणिका]