Sunday 3 September 2023
नैतिकता के गुलाब : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की क्षणिकाएँ
झंझावातों के मध्य खिला हूँ : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Monday 3 July 2023
गुरु महिमा/गुरु पूर्णिमा विशेष हाइकु : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Saturday 29 April 2023
विश्वास करो : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
मैं
असहज हो गया था
उस दिन
तुम्हारी आँखों में आँसू देख कर
सम्भवतः
पहली बार मुझे
लगा था ऐसा
कि तुम्हारे हृदय में
मेरे लिए भी
छिपा है ढेर सारा प्यार
और मैं नहीं समझ सका कभी।
उस दिन मेरी आँखें भी
हो गयी थीं- नम
मैं कहना चाह रहा था
बहुत कुछ
तुम्हारे रुआँसे स्वर
"जा रहे हो...कब आओगे"
के प्रत्युत्तर में, किन्तु
साथ नहीं दे पा रहा था
मेरा रुँधा गला
उस वक़्त...,
और अनवरत् आँसुओं में भीगे
मेरे शब्द - मेरे स्वर
अटके जा रहे थे
चेतना/निःशब्द-सी हो गयी थी
बहुत साहस बटोर कर
नज़रें घुमा कर
बस इतना ही
कह सका था-
"हाँ...पता नहीं"
और चरण स्पर्श कर
चल दिया था
विश्वास करो दादा जी
मैं रोना चाह रहा था
लिपट कर
जी भर
ज़ोर-ज़ोर से,
पर मेरा साहस
शायद लुप्तप्राय था।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com
Sunday 26 March 2023
उदास मत हो : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
तुम मेरी छाया हो सकती हो
कार्बन कॉपी.....कभी नहीं
फोटोकॉपी.....सम्भव ही नहीं
किन्तु तुम उदास मत हो!
छाया भी
कभी-कभी
अपने वास्तविक स्वरूप से
बड़ी हो जाती है
मुँह बाये॔ खड़ी हो जाती है।
तुम उदास मत हो
छाया भी
कभी-कभी
अपने विशिष्ट प्रयासों से
विशिष्ट बना देती है
वास्तविक स्वरूप को
ढक लेती है धूप को।
हाँ, तुम उदास मत हो!
मैं जानता हूँ
तुम पल-पल
मेरे साथ रहती हो
दिल में घुमड़ते जज़्बात - अपने गम
मुझसे
कभी नहीं करती हो
हाँ, मैं जानता हूँ
हाँ, छाया!
मैं जानता हूँ।
मैं - मेरी काया
एहसानमंद हैं तुम्हारे
हाँ, छाया
विश्वास करो.....
मैंने कई बार कहना चाहा - शुक्रिया!
पर नहीं जुटा सका साहस
कि कह सकूँ- शुक्रिया।
मैं जानता हूँ
तुम सब समझ सकोगी
क्योंकि
तुमने
मेरी धड़कनों को सहेजा है
महसूस किया है- बड़ी सहजता से
हर बार
बार-बार।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
वार्तासूत्र- 9839942005
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Wednesday 22 March 2023
चलें कौन-सा दाँव : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
नहीं रही क्यों
कहाँ गयी अब
गुलमोहर की छाँव,
इसी प्रश्न पर
मौन साध कर
बैठा सारा गाँव।
गांधारी हो गयी अस्मिता
धृतराष्ट्र न्याय के पैमाने
नतमस्तक हो कर सत्य-शील
बैठे दुर्योधन पैताने,
अंगराज-सा
भाग्य विवश है
कटे हुए हैं पाँव।
इधर चेतना के सर पर
कुछ काले बादल मँडराये
उधर बवंडर हुआ माफ़िया
कट्टा-बन्दूकें लहराये,
भयाक्रांत
रोटी के सपने
चलें कौन-सा दाँव।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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Wednesday 15 March 2023
महासमुद्र में : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Tuesday 14 March 2023
अनुपम कृति : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
जिस पल
मैं/तुममें
तुम/मुझमें
खो जाती हो,
उस पल
मैं- पुरुष
तुम- प्रकृति
हो जाती हो,
मैं
सामान्य से परे
और तुम!
विधाता की
अनुपम कृति
हो जाती हो!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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Thursday 2 March 2023
उस फागुन की चैट- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे
दृग सिग्नेचर कर रहे, एक हुए सब भाव।
फागुन ने जादू किया, पास हुआ प्रस्ताव।।
फागुन मन बादल हुआ, इच्छाएँ आकाश।
इन्द्रधनुष उर में उगे, टूट गये सब पाश।।
फागुन ने आँचल छुआ, संग लिये संकल्प।
नहीं प्रेम का लोक में, कोई और विकल्प।।
नयनकोर पर बन रहे, सुस्मृतियों के फ़्लैट।
इस फागुन में पढ़ रहा, उस फागुन की चैट।।
फागुन का त्यौहार था, मिलने की मनुहार।
पढ़ा पत्र पर विवश था, टपके अश्रु हज़ार।।
आँख मिलीं तो मिल गया, सहसा मुझे जवाब।
गुझिया उसके हाथ थी, मेरे हाथ गुलाब।।
मन गुब्बारे-सा हुआ, पढ़ा शब्द 'प्राणेश'।
मैसेंजर में दिख गया, गुझिया का संदेश।।
मिलन हुआ, बाँछें खिलीं, विरह गया वनवास।
फागुन आया लिख गया, रोम-रोम उल्लास।।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)
veershailesh@gmail.com
Friday 20 January 2023
लघुकथा/बिजली - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
"इतना शानदार कॉफ़ी-हाउस! तुम्हारा है? रेडलाइट एरिया वाली बिजली हो न तुम?" दो मिनट घूरने के बाद कॉफ़ी सिप करते हुए विक्रम अचानक कॉफ़ी-हाउस की मालकिन से पूछ बैठा। "आप रेडलाइट एरिया जाते रहे हैं, तो ज़रूर मैं बिजली हूँ।" अपनी पत्नी संयोगिता के साथ कॉफ़ी पीने आये विक्रम को ऐसे उत्तर की अपेक्षा न थी।
"चलो कोई बात नहीं", सकपका कर विक्रम ने बात को टालना चाहा तो संयोगिता बोल पड़ी- "अपने ऐब मत छुपाओ विक्रम। बताओ न कैसे पहचानते हो इन्हें?"
बिजली ने कहा, मैम! "मैं बताती हूँ। विक्रम बाबू! मेरे पास आते-जाते आपने कभी बताया था कि कैसे आप पान का बिज़नेस करते-करते हीरों का बिज़नेस करने लगे। मैंने भी अपना बिज़नेस बदल लिया, जिस्म बेचने के बजाय कॉफ़ी बेचने लगी। कुछ ग़लत किया क्या मैंने!" बिजली का चेहरा स्वाभिमान की अनुभूति से दमक रहा था।
विक्रम ने बिल का पेमेंट किया और संयोगिता के साथ सर झुकाये कॉफ़ी-हाउस से बाहर चला गया।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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Thursday 19 January 2023
महकी जूही : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के पुष्प केन्द्रित हाइकु
प्रेम-सरिता
आसमानी हैं ख़्वाब
मन गुलाब।
श्रम की गाथा
हृदय ने पढ़ा तो
महकी जूही।
खिल गया मैं
ज्यों सरसों का पुष्प
देखा तुमने।
हो गया मन
कचनार का फूल
उभरी यादें।
संवेदनाएँ
गढ़ती रहीं आस्था
फूलों का जादू।
देकर आया
नरगिस का फूल
घुमड़े मेघ।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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