Monday, 9 June 2025

हवाओं के ख़िलाफ़/डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की क्षणिकाएँ


1-
चीटियाँ भी
पानी में चलने लगी हैं,
बड़े-बड़े मगरमच्छों को
निगलने लगी हैं!

2-
कफ़न की कीमत
मुर्दे ही समझते हैं,
इसलिये/कफ़न के लिये
कभी नहीं लड़ते हैं!

3-
उसने जब-जब
तुममें
संभावनाएँ तलाशीं,
तुम दैत्य हो गये!

4-
वे हर अवसर पर
पर्चे छपवाते हैं,
चंदे के पैसों से
घर चलाते हैं!

5-
हवाएँ
मेरे ख़िलाफ़ हैं
और मैं
हवाओं के ख़िलाफ़,
वजूद की लड़ाई जारी है!

6-
वह प्रकृति में
स्फूर्ति भरती है,
किन्तु
अधिकारों के लिए
आज भी
संघर्ष करती है!

7-
धूर्त/धुरधंरों पे
भारी पड़ रहे हैं,
यह बात
धूर्त ही नहीं,
धुरंधर भी कह रहे हैं!

8-
गाँव से नगर
नगर से महानगर हो गये,
आदमी थे
जानवर हो गये!

9-
वे
पाप की गठरी
बहाकर आये हैं,
गंगा
नहाकर आये हैं!

10-
माँ-बाप
बच्चों की हैसियत बनाते हैं,
और आजकल बच्चे
माँ-बाप को
उनकी हैसियत बताते हैं!

11-
उधर
उन्नति के शिखर पर
भावी पीढ़ियाँ हैं,
इधर दरक रही
संस्कारों की सीढ़ियाँ हैं!

12-
महापुरुषों का चरित्र
आजकल नेता
घटाते-बढ़ाते हैं,
चुनाव जीत जाते हैं!

13-
रात ढल गयी
सुबह का
अपना पराक्रम है,
कुछ कर गुज़रने की
उम्मीद में
बुधिया
फिर 'विक्रम' है!

14-
अपनी स्वतन्त्रता
औरों की परतन्त्रता
उनका मूल मन्त्र है,
कुर्सियों का 
जनतन्त्र के ख़िलाफ़
सदियों से षड़यन्त्र है!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
सम्पर्क: 18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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