1-
चीटियाँ भी
पानी में चलने लगी हैं,
बड़े-बड़े मगरमच्छों को
निगलने लगी हैं!
2-
कफ़न की कीमत
मुर्दे ही समझते हैं,
इसलिये/कफ़न के लिये
कभी नहीं लड़ते हैं!
3-
उसने जब-जब
तुममें
संभावनाएँ तलाशीं,
तुम दैत्य हो गये!
4-
वे हर अवसर पर
पर्चे छपवाते हैं,
चंदे के पैसों से
घर चलाते हैं!
5-
हवाएँ
मेरे ख़िलाफ़ हैं
और मैं
हवाओं के ख़िलाफ़,
वजूद की लड़ाई जारी है!
6-
वह प्रकृति में
स्फूर्ति भरती है,
किन्तु
अधिकारों के लिए
आज भी
संघर्ष करती है!
7-
धूर्त/धुरधंरों पे
भारी पड़ रहे हैं,
यह बात
धूर्त ही नहीं,
धुरंधर भी कह रहे हैं!
8-
गाँव से नगर
नगर से महानगर हो गये,
आदमी थे
जानवर हो गये!
9-
वे
पाप की गठरी
बहाकर आये हैं,
गंगा
नहाकर आये हैं!
10-
माँ-बाप
बच्चों की हैसियत बनाते हैं,
और आजकल बच्चे
माँ-बाप को
उनकी हैसियत बताते हैं!
11-
उधर
उन्नति के शिखर पर
भावी पीढ़ियाँ हैं,
इधर दरक रही
संस्कारों की सीढ़ियाँ हैं!
12-
महापुरुषों का चरित्र
आजकल नेता
घटाते-बढ़ाते हैं,
चुनाव जीत जाते हैं!
13-
रात ढल गयी
सुबह का
अपना पराक्रम है,
कुछ कर गुज़रने की
उम्मीद में
बुधिया
फिर 'विक्रम' है!
14-
अपनी स्वतन्त्रता
औरों की परतन्त्रता
उनका मूल मन्त्र है,
कुर्सियों का
जनतन्त्र के ख़िलाफ़
सदियों से षड़यन्त्र है!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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