अम्बर के प्रणय-निवेदन पर
लजा गयी धरती,
मुख से निकला
एक शब्द- "अहा!"
और तब से स्वीकृति का
एक पर्याय
अहा भी
हो गया।
□
उसकी चुप्पी में
पढ़े मैंने
उसके मन के भाव,
एक थी हृदय की वेदना
एक थे नयनों के बोल,
ओढ़ लिया धरा ने
हया का घूँघट,
रह गया मुस्कुरा कर
नभ।
□
देह के आसपास
देह से कोसों दूर
एक-दूसरे की चेतना में
रमे दो पक्षी,
लिख रहे-
अनकहे प्रेम की
यशोगाथा,
साक्षी है समय।
□
मिलूँगा तुमसे
एक दिन
किसी निर्जन स्थान पर,
और देखूँगा उसे
निश्छल मुस्कान के सानिध्य में
साथ तुम्हारे
हरा-भरा होते हुए।
□
विराम मत दो
संवाद को,
शायद-
हो जाये कोई कविता
पी लेना चाय
फिर कभी।
□
कुछ बोलती क्यों नहीं
बस देख रही
एकटक तुम मुझे
और मैं तुम्हें
गोया कोई तस्वीर हो तुम
और मैं कोई बुत।
□
मुस्कुरा दी तुम-
बिखरने लगीं स्वर्ण-किरणें
करने लगी जादू-
नथ की आभा,
और फिर कान में
फुसफुसाया सूरज-
"सुनो! यही है महारानी
तुम्हारे सपनों की।"
□
दुनिया दर्द/तुम मरहम,
दुनिया अश्कों का सैलाब
तुम ख़ुशी का समन्दर,
तुम संग
जीवन में रंग ही रंग।
□
तुम्हारा आना
मेरे हाथ से लिफ़ाफ़ा लेना
और मुस्कराकर चली जाना,
उर अन्तर में- तुम ही तुम,
सुनो! लौट कर आना-
इन्हीं वादियों में,
मैं प्रतीक्षा करूँगा सदियों।
□
भिन्न से अभिन्न
द्वैत से अद्वैत
वाद न विवाद,
कल्पनाओं से परे है
मन और यथार्थ का संवाद।
□
भरकर दृगों में
प्रीति का महासमुद्र
सूर्य की एक-एक किरण
फिर बिखरेगी,
बेशक!
धूप निखरेगी।
□
सुनकर/प्रीति के जादुई बोल
और गाढ़ी हो गयी
उसके हाथों की मेहन्दी,
हया ने/ओढ़ लिया घूँघट,
पानी-पानी
हो गया चाँद।
□
"जा रही हूँ, बाॅय"
और फ़ोन कट...,
मस्तिष्क ऊहापोह में
मन सपनों में
उसके मधुर स्वर से
आकाश गुलाबी हो गया।
□
दृष्टि के समक्ष
उसकी
मुस्कुराती हुई तस्वीर,
पीड़ा छूमन्तर!
मुझे गहन अनुभूति हुई
सृष्टि के सामर्थ्य की।
□
उसने ओढ़ ली चुप्पी
मैं पढने लगा मौन की भाषा,
वह हँसी
कह गयी बहुत कुछ
इशारों में,
मैं ढूँढने लगा
अनुभूति में शब्द,
और वह गढ़ रही थी स्वयं
अलौकिक प्रीति का यथार्थ-लोक।
□
मैं उसके हृदय में
वह मेरे हृदय में
हम दोनो ज्यों नदी के दो तट
हम दोनो ज्यों धरती-आकाश
हम दोनो ज्यों चंदा-सूरज
प्रसन्न हैं-
एक-दूसरे को निहार कर।
□
दुनियाभर के दुराग्रहों से दूर
दो अपृथक आत्माएँ
कर रहीं संवाद,
सदियों ने प्रस्तुत किये
एकीकृत संवेदनाओं के साक्ष्य,
तब प्रति पृष्ठ में दोनो ने पढ़ा-
अपने संकल्पों के गुलाबी संवेग।
□
"अलविदा मत कहना कभी",
इतना ही कहा धरा ने
और
जीत लिया-
आकाश।
□
कहा उसने-
"मत करना कभी
छोड़कर जाने की बात,
कहो - सॉरी।",
आशंकाओं से पनपे पौधे
हो गये विनष्ट,
खड़ा हो गया-
नेह का वटवृक्ष।
□
प्रतीक्षा में सूरज
बिखेर रहा किरणें
आ जाना तुम
अस्तगामी होने से पूर्व,
न आ सको तो-
मत आना,
सूरज, फिर मिलेगा कल
पूर्व से पश्चिम तक
भोर से सन्ध्या तक।
□
तुमसे मिलकर
जान पाया-
प्रीत ही जीत,
सजनी!
मैं गीत/तुम संगीत,
बस! यों ही चलती रहें
अपृथक श्वासें,
नहीं चाहिए भूमण्डल।
□
बहुत देर से
ठहरा हुआ हूँ
इनबाॅक्स में,
शायद तुम लिखोगी कुछ
या फिर भेजोगी कोई इमोजी,
मौन टूटता ही नहीं,
तुम भी सोच रही होगी
मुझे ही,
जानता हूँ।
□
असंख्य सपनों के साये में
झंकृत है रोम-रोम,
स्मृतियाँ/कूक रहीं कोयल-सी,
चुप्पियों की सघन छाँव में
महक उठा है-
संवेगों का घरौंदा,
तुम्हें आना ही होगा।
□
मैंने महसूस किया
उतर गयी
दिन भर की थकान,
भेजी उसने
मैसेंजर में
हाथों में चाय का कप थामे
एक क्यूट-सी सेल्फ़ी।
□
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com
आपके शब्द नि:शब्द कर जाते हैं
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