मानो कोई रख गया, सर पर स्वर्ण किरीट।।
गाया करता हूँ प्रिये, लिखे तुम्हारे गीत।
शायद आये लौट फिर, गया समय जो बीत।।
ढले कभी जो प्रीत में, गीत और नवगीत।
रचे-बसे हैं आज भी, मन में मेरे मीत।।
बातें मधुवन-सी लगें, मन में छाये मेह।
नेह नगर के अंक में, संकल्पों का गेह।।
नयन झुके, सपने सजे, जगी हृदय क़ंदील।
मन बौराया हो गया, सागर, झरना, झील।।
मिले मीत जब अंक भर, बचे न मन में भीति।
यही प्रीति की नीति है, यही प्रीति की रीति।।
चैट हुई, फिर जुड़ गये, जुड़े होम टू होम।
मन बातें करने लगा, भारत से अब रोम।।
जीवन का सुर-ताल तुम, तुम हो मेरी गीति।
धन्य स्वयं को मानता, मिली तुम्हारी प्रीति।।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)
veershailesh@gmail.com
No comments:
Post a Comment