बहुत कुछ कहना चाहता हूँ तुमसे
कभी पास बैठो तो कह दूँ
कि जिसे तुम कहती हो आकाश
उस आकाश की मही तुम हो
कि जिसे तुम समझती हो सूरज
उस सूरज की चंदा तुम हो
कभी बैठो न पास
बहुत कुछ कहना चाहता है मेरा मन तुमसे
तुम जादू करती हो
और सारा आसमान गुलाबी हो जाता है
तुम जादू करती हो
और सूरज तुम्हारी आभा के आकर्षण में
मंत्रमुग्ध हो जाता है
कभी बैठो न पास आकर
मुझसे कहो कि
मैं बिताना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ जीवन के कुछ पल
कभी कहो न कि कुछ देर के लिए
मुझे भर लो अपनी बाँहों में
और हो जाना चाहती हूँ तुम्हारी
पर तुम आती हो और चली जाती हो
सोचो कैसे सँभलता होगा हृदय!
प्रतीक्षा में बीत रहे युग
और पत्थर हो चली हैं आँखें
काश कि!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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आपकी यह कविता प्रेम की उस अनछुई गहराई को छूती है, जहाँ शब्द अधूरे पड़ जाते हैं, और भावनाएँ खुद एक संवाद बन जाती हैं। इसमें प्रतीक्षा का धैर्य, प्रेम का जादू, और आकांक्षाओं की मिठास एक साथ झलकती है। आकाश, सूरज, और चाँद जैसे प्रतीक कविता को एक अलौकिक आभा दे रहे हैं, जो प्रेम को सीमाओं से परे ले जाते हैं।
ReplyDeleteयह सिर्फ एक संवाद नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार है, जहाँ आप कवि रूप में अपनी पूरी सृष्टि को उस प्रिय के आकर्षण में बंधा हुआ महसूस कर रहे है। 'पत्थर हो चली आँखें' और 'युगों की प्रतीक्षा' जैसे बिंब दिल की गहराई को छूने वाले हैं, जो अधूरे मिलन की पीड़ा को खूबसूरती से सामने लाते हैं। अद्भुत सृजन!