सोचा था
सर्दी के मौसम में
तुम ज़रूर याद करोगी
कई दिनों तक
करता रहा प्रतीक्षा
बजेगी मोबाइल की रिंग
निकल आयेगी धूप
और छँट जायेगा
घना कुहासा
मैंने खँगाला
मैसेंजर और ह्वाट्सएप में
पड़ी पुरानी चैट
मन तरंगित होता रहा
खिलती रहीं हृदय में
आशाओं की
असंख्य कुमुदिनियाँ
झकझोर दिया
आत्मा ने यकायक
बरसने लगे
देर रात्रि से घुमड़ते बादल
स्मृतियों का लोप सम्भव नहीं
जानता हूँ
तकनीक के संक्रमण काल से
गुज़रती चेतना
अलमारी में ढूँढ़ने लगी
वर्षों पुराने पत्र
लैपटॉप में तलाशती रही
पुरानी ईमेल
लगा कि फट पड़ेगा आसमान
बिजली की कड़कड़ाहट
झकझोरती रही मुझे
ठण्डक अपने रौद्र रूप में
प्रवेश कर चुकी है
संकल्पों का लेखा-जोखा
भ्रम के अतिरिक्त
कुछ नहीं,
जैसे गुज़रे हैं
दिवस/महीने/वर्ष
यों तुम्हारी याद में
एक दिन
और कट जायेगा!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष : अन्वेषी संस्था)
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