Wednesday, 29 January 2025

तुम गुम थी कहीं और : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की क्षणिकाएँ

माना, तुम कहीं और थी
मैं कहीं और
पर गुम रहा 
तुम्हारे ही ख़यालों में,
यादों का कारवाँ
जब तक पहुँचा
तुम्हारे पते पर,
तुम गुम थी कहीं और।


एक ओर आशाओं की 
ऊँची पर्वत शृंखला
दूसरी ओर अवरोधों की 
गहरी घाटियाँ,
दोनो के मध्य 
जूझती है अनवरत्
मेरी इच्छा शक्ति।


शीत युद्ध जारी है
धरा और 
अम्बर के बीच, 
बुलाया है क्षितिज ने 
अवलोकनार्थ।


खेत-मकान बेचकर
रामधनी का बेटा
शहर में रहता है,
गाँव नर्क है
बात-बात पर 
कहता है।


पुश्तैनी मकान
पाँच बीघा ज़मीन
बेचकर 
बहुत ख़ुश है फुल्लू,
कल उसने ख़रीद लिया है
पॉश एरिया में
नया 
टू बीएचके फ़्लैट।


दस बिसुवे के मकान में
रहने वाला 
गयादीन 
दस बाई दस के 
फ़्लैट में गुज़ारा करता है,
"महानगर में रहता हूँ"
शान से कहता है।


विकास के रास्ते पर
एक नयी किरण 
दिखायी दी है,
आशान्वित हूँ
चुनाव पश्चात् भी
बना रहेगा
अस्तित्व।


झरोखों के पार भी
है कोई दुनिया,
चूल्हा-चौका करते
सोच रही
मुनिया।


आज बेटे को
मिली है
पहली किताब,
ख़ुश है अनपढ़ माँ 
जैसे जीत लिया हो
उसने
ओलम्पिक में 
स्वर्ण पदक।

त्रिज्या और जीवा के
झगड़े में
खो गयी परिधि
नहीं बचा
वृत्त का अस्तित्व।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- editorsgveer@gmail.com

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