Saturday 15 February 2020

तुम मेरी राधा : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

(10 क्षणिकाएँ)
1-
तुम बस जाती हो
बहुत गहरे अन्तर में 
और मैं 
पढ़ लेता हूँ 
तुम्हारी प्रत्येक चुप्पी,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा।

2-
देह से परे
बतियाती हैं आत्माएँ
एक-दूसरे के 
हृदय में बैठकर
जन्म-जन्मान्तर से परे,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा।

3-
तुम बाती 
मैं दीपक 
तुम भाव
मैं बुद्धि,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

4-
मिलो न मिलो
तुम मेरी चेतना 
मैं अविनाशी आत्मा 
हम अभिन्न 
हाँ,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

5-
मैंने अनुभूति की
प्रत्येक पल तुम्हारी 
तुम प्रकृति की संवाहक 
मौन में भी निरन्तर संवाद 
हाँ,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

6-
तुम कहो न कहो
मैंने पढ़ा 
तुम्हारे हृदय में 
अपने अनुराग के अमर पृष्ठ 
हाँ,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

7-
तुम नायिका
मैं नायक
क्षितिज के मुहाने पर 
मिलें शायद
हम कभी या कभी भी नहीं
कामनाओं से परे
आत्माओं का सौन्दर्य 
देता है अलौकिक आनन्द,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

8-
तुम भले हो मुझसे दूर 
किन्तु बतियाती हो
मेरी चेतना से
प्रत्येक क्षण 
समाहित हो मेरी 
प्रत्येक धारणा में,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 

9-
सृष्टि के अस्तित्व में गुँथे 
हम दोनों,
चेतनाविहीन हैं श्वासें 
तुम मेरी आत्मा 
मैं तुम्हारा मन,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा।

10-
मन आह्लादित होता है
बाराम्बार
देखकर हृदय में 
तुम्हारी
रची-बसी प्रतिमूर्ति
अनूठा है
दो आत्माओं का मिलन,
तुम मेरी राधा 
मैं तुम्हारा कान्हा। 
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com 
[क्षणिका]




4 comments:

  1. बहुत सुंदर क्षणिकाएँ। बधाई।

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