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भीतर पीड़ा बाहर पीड़ा, कितनी पीड़ा है जग में।
पीड़ा की शासन-सत्ता है, पीड़ा बहती रग-रग में।
बंदी रवि है, राजा तम है, कण्टक बिखरे मग-मग में।
इस पीड़ा को दमन करूँ मैं, इतिहास रचूँ पग-पग में-
ख़्वाहिश लेकर जीता हूँ
रोज़ हलाहल पीता हूँ।
पीड़ा मेरी सहचरी बनी,
मैं पीड़ा संग इठलाता हूँ।
पीड़ा से मेरा नाता है,
इसमें अपनापन पाता हूँ।
पीड़ा सिखलाती समर मुझे,
पीड़ा देती रसबोध मुझे।
पीड़ा जीना समझाती है,
पीड़ा से मिला प्रबोध मुझे।
मैं पीड़ा तजकर चलूँ किधर,
यह हर पल साथ निभाती है।
पल भर की साथी हैं खुशियाँ,
पीड़ा ही साथ निभाती है।
पीड़ा चलती है जब तनकर,
सुख जाने जाता भाग किधर।
जिधर दिखायी देती पीड़ा,
सुख कभी न आता पास उधर।
मिट्टी से मिलती जब पीड़ा,
तब मोक्ष मनुजता पाती है।
चरम बिन्दु पर जाकर पीड़ा,
जीवन-रहस्य समझाती है।
पीड़ा कविता भी लिखती है,
पीड़ा लिखती है महाकाव्य।
इतिहास सृजन करती पीड़ा
पीड़ा दिखलाती महाभाग्य।
पीड़ा का अपना वैभव है,
यह सँभल-सँभलकर चलती है।
पीड़ा न किसी को छलती है,
पीड़ा तो मिलकर चलती है।
पीड़ा से आह निकलती है,
है यह भी बिल्कुल सत्य कथन।
पीड़ा दृष्टि दिखाती हरदम,
है यह भी बिल्कुल सत्य वचन।
पीड़ा जिसके भी साथ रही,
मनु वह निष्कंटक चला सदा।
पीड़ा से मानव जन्मा है,
पीड़ा ही लेकर पला सदा।
परचम लहराता पीड़ा का-
जब, तब आता सुख पास कहाँ।
सुख का वैभव क्षणभंगुर है,
है दुख में सुख का वास कहाँ।
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Tuesday, 5 January 2021
पीड़ा - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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ReplyDeleteसुख का वैभव क्षणभंगुर है,
है दुख में सुख का वास कहाँ
खुबसूरत भाव