सम्बन्धों की परिभाषा तुम,
अपनेपन की अभिलाषा तुम।
जीवन का उपमान तुम्हीं हो,
तुम गुलाब की पंखुड़ियों-सी।
तुम अमर राग, तुम सुर-सरगम,
तुम हो दीपों की लड़ियों-सी।
बोलूँ क्या-क्या सजनी तुमको,
इस मूक हृदय की भाषा तुम।
मीलों दूर भले तुम आली,
यादें जूही हो जाती हैं।
साँसों में बसती हो ऐसे,
कितने फागुन बो जाती हो।
उर में आते जो भाव मृदुल,
उन भावों की प्रतिभाषा तुम।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
वार्तासूत्र- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com

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