*एक वही है सत्ता*
- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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सूरज, चंदा, तारे, धरती, भँवरे, जुगनू, फूल।
पेड़, परिन्दे, पोखर, पर्वत, सागर, नदिया, कूल।
सारे जग में सत्ता जिसकी, सारे जग का मूल।
कण-कण में है वास उसी का, बिन उसके सब धूल।।
अन्न उसी से, पानी उससे, उससे वेतन-भत्ता।
चाहे महल-क़िले हों चाहे, मधुमक्खी का छत्ता।
उसकी इच्छा नहीं अगर तो, हिलता कभी न पत्ता।
जीवन-मौत उसी के हाथों, एक वही है सत्ता।।
एक वही 'अंपायर' यारों, एक वही इकतार।
सब बौने हैं उसके आगे, एक वही सरदार।
शीश झुकाओ उसके आगे, जीवन के दिन चार।
उससे अपनी विनती इतनी, हमें लगाये पार।।
शानो-शौक़त दुनियादारी, रहन-सहन पहनावा।
अपना रोना-हँसना सब कुछ, बस है एक छलावा।
एक वही अस्तित्ववान है, छोड़ो ढोंग-दिखावा।
अपकर्मों से तौबा कर लो, नहीं बाद पछतावा।।
साधू-सन्त-कलंदर हरदम, करते जिसका ध्यान।
छोड़ो मन में पाप बसाना, गाओ उसके गान।
जिसको 'मैं'-'मैं' करते हो तुम, वह केवल अभिमान।
पालनहार वही है जग का, उससे सकल जहान।।
इन्द्रधनुष के रंग उसी से, नीला हो या पीला।
बारिश, गर्मी, सर्दी हो या, मौसम रंग-रँगीला।
कार्य वही है, कारण भी वह, उसकी ही सब लीला।
उसकी अनुपम आभा से ही, जग दिखता चमकीला।।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com
- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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सूरज, चंदा, तारे, धरती, भँवरे, जुगनू, फूल।
पेड़, परिन्दे, पोखर, पर्वत, सागर, नदिया, कूल।
सारे जग में सत्ता जिसकी, सारे जग का मूल।
कण-कण में है वास उसी का, बिन उसके सब धूल।।
अन्न उसी से, पानी उससे, उससे वेतन-भत्ता।
चाहे महल-क़िले हों चाहे, मधुमक्खी का छत्ता।
उसकी इच्छा नहीं अगर तो, हिलता कभी न पत्ता।
जीवन-मौत उसी के हाथों, एक वही है सत्ता।।
एक वही 'अंपायर' यारों, एक वही इकतार।
सब बौने हैं उसके आगे, एक वही सरदार।
शीश झुकाओ उसके आगे, जीवन के दिन चार।
उससे अपनी विनती इतनी, हमें लगाये पार।।
शानो-शौक़त दुनियादारी, रहन-सहन पहनावा।
अपना रोना-हँसना सब कुछ, बस है एक छलावा।
एक वही अस्तित्ववान है, छोड़ो ढोंग-दिखावा।
अपकर्मों से तौबा कर लो, नहीं बाद पछतावा।।
साधू-सन्त-कलंदर हरदम, करते जिसका ध्यान।
छोड़ो मन में पाप बसाना, गाओ उसके गान।
जिसको 'मैं'-'मैं' करते हो तुम, वह केवल अभिमान।
पालनहार वही है जग का, उससे सकल जहान।।
इन्द्रधनुष के रंग उसी से, नीला हो या पीला।
बारिश, गर्मी, सर्दी हो या, मौसम रंग-रँगीला।
कार्य वही है, कारण भी वह, उसकी ही सब लीला।
उसकी अनुपम आभा से ही, जग दिखता चमकीला।।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com
Nice 👍
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