Wednesday, 31 July 2019

एक 'पूस की रात' - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

अमर कथाएँ दी हमें, गढ़े अमर किरदार।
मुंशी जी साहित्य के, हैं सच्चे सरदार।।

कथाकार सिरमौर वे, उपन्यास सम्राट।
प्रेमचंद बस एक हैं, जैसे व्योम विराट।।

लिखे लेखनी सच सदा, याद रहे यह बात।
सदियों पर भारी पड़ी, एक 'पूस की रात'।।

हरी नोट में ढूँढ़ता, अन्न-वसन भरपूर।
मिला माॅल में कल मुझे, फिर हामिद मज़बूर।।

क़दम हमारे चन्द्र पर, पड़ने को तैयार।
होरी बेबस आज भी, धनिया भी लाचार।।

दुनिया के दुख-दर्द का, जब-जब ढूँढ़ा छोर।
होरी-हल्कू तब यहाँ, मिले मुझे हर ओर।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
31/07/2019

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