Sunday, 1 September 2019

*मन का रावण मरा नहीं है* : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

हुआ सत्य से झूठ पराजित, और दैन्य से दम्भ।
पूर्ण हुआ अभियान विजय से, कष्टों से प्रारम्भ।
उन्हें पूजती दुनिया सारी, संस्कृति के स्तम्भ।
उनसे चलती श्वास सृष्टि की, उनसे ही आरम्भ।।

जो समष्टि हित जीते हरदम, वे बन जाते राम।
मन का रावण मार सके जो, वे कहलाते राम।
धरती डोले जब असुरों से, तब आते हैं राम।
अहम् शून्य मर्यादा भारी, यही बताते राम।।

आज दशहरे पर फिर से, वही तमाशेबाज़ी।
चंदा करके रावण बनता, होती आतिशबाज़ी।
आज अमावस फिर सोया है, खाकर बासी भाजी।
बोलो कैसे पर्व मनाऊँ, मन कैसे हो राजी।।

भिक्खू का परिवार सड़क पर, फटेहाल पहनावा।।
फूँक दिया था घर रज्जू ने, लल्लन का है दावा।
जैसे-तैसे जेल भी पहुँचे, ज़रा नहीं पछतावा।
मन का रावण मरा नहीं है, करते ढोंग दिखावा।।

बल-वैभव का करें प्रदर्शन, अनगिन ऐसे रोग।
जैसे तैसे जो भी आये, करते धन का योग।
अपकर्मों से नाता जिनका, सुरा, सुंदरी, भोग।
फूँक रहे हैं रावण पुतले, रावण जैसे लोग।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com

2 comments:

  1. मन का रावण मार सके वो कहलाते राम
    विजयादशमी पर्व विशेष पर आपका यह सहज एवं सार्थक चिंतन आपकी रचना में मुखर हुआ है। जो समाज को वास्तविकता का आभास कराने के साथ-साथ उसे ढोंग दिखावे से दूर रहने के लिए उत्प्रेरित कर रहा है।
    पर्व की मंगलमय शुभकामनाओं सहित सादर नमन आदरणीय

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    1. हार्दिक आभार आपका 🙏
      आपको भी दशहरा पर्व की सपरिवार हार्दिक बधाई एवं अनन्त शुभकामनाएँ!

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