किचन की खिड़की से
मैंने निहारा
प्रियतमा को चुपचाप
बिखरी लटों के बीच से
उसने भी निहारा मुझे
एक हो गयी नज़र
मुस्कुराये हम दोनों
एक लम्बी खिलखिलाहट ने
तोड़ दी चुप्पी -
और कोई काम नहीं क्या
जब देखो तब
चले आते हो दबे पाँव
देखो न जल गयी रोटी
जाते हो या...
और लटों को किनारे कर
साड़ी के पल्लू से
पोंछ ली
माथे का पसीना
बेलने लगी फिर एक रोटी
मैं निहारता रहा -
विश्वास की आँच में
दमदमाता अलौकिक सौन्दर्य
नेह की लोई में सनी
निश्छल मुस्कान
चेतना ने देखा -
संकल्प के चूल्हे में पका
जन्म-जन्मांतर का सानिध्य
सोचता रहा -
बाधाओं के तवे पर
आत्मविश्वास के चिमटे ने
पकड़ रक्खे हैं सभी सपने
जिन्हें साकार होना ही है
हमारी ज़िद के आगे
यकायक
उसने देखा मुझे
लजाये कपोल
बुदबुदाये होंठ
हे भगवान
गये नहीं तुम अभी
मत बुनो ख़्वाब
खड़े-खड़े
आओ
भरकर बाँहों में
ले लो एक सेल्फ़ी
ड्यु है कब से!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
26/09/2019
doctor_shailesh@rediffmail.com
मैंने निहारा
प्रियतमा को चुपचाप
बिखरी लटों के बीच से
उसने भी निहारा मुझे
एक हो गयी नज़र
मुस्कुराये हम दोनों
एक लम्बी खिलखिलाहट ने
तोड़ दी चुप्पी -
और कोई काम नहीं क्या
जब देखो तब
चले आते हो दबे पाँव
देखो न जल गयी रोटी
जाते हो या...
और लटों को किनारे कर
साड़ी के पल्लू से
पोंछ ली
माथे का पसीना
बेलने लगी फिर एक रोटी
मैं निहारता रहा -
विश्वास की आँच में
दमदमाता अलौकिक सौन्दर्य
नेह की लोई में सनी
निश्छल मुस्कान
चेतना ने देखा -
संकल्प के चूल्हे में पका
जन्म-जन्मांतर का सानिध्य
सोचता रहा -
बाधाओं के तवे पर
आत्मविश्वास के चिमटे ने
पकड़ रक्खे हैं सभी सपने
जिन्हें साकार होना ही है
हमारी ज़िद के आगे
यकायक
उसने देखा मुझे
लजाये कपोल
बुदबुदाये होंठ
हे भगवान
गये नहीं तुम अभी
मत बुनो ख़्वाब
खड़े-खड़े
आओ
भरकर बाँहों में
ले लो एक सेल्फ़ी
ड्यु है कब से!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
26/09/2019
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