घर को घर
इंसान को इंसान
बनाती मम्मी
पीती विष सर्वदा
पिलाती सुधा सदा।
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शुभ मुहुर्त
घर आ गयी बहू
ख़ुश हुई माँ
रह गयी निक्कमी
ग़ुम हो गयी मम्मी।
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काम ही काम
दिन-रात सुश्रुषा
उफ़ न आह
देवताओं ने कहा-
विलक्षण है मम्मी।
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हार के जीता
नौ दो ग्यारह हुईं
बद-दुआएँ
भारी पड़ीं फिर से
मम्मी की प्रार्थनाएँ।
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© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
ईमेल: veershailesh@gmail.com
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