Wednesday 6 July 2022

लघुकथा/राजकुमार मिल गया - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

"देखो मेरा पीछा मत करो, तुम कल वहाँ मिले थे और आज यहाँ। तुम चाहते क्या हो!" एक श्वास में मीना विजेन्दर से कह गयी। "यही कि तुमसे मोहब्बत है हमें और यही कि तुम्हें अपना बनाना है।" विजेन्दर ने भी अपने मन की उसे बता दी। 
"देखो तुम जानते नहीं कि मैं कौन हूँ।" 
"ख़ूब जानते हैं। दरोगा साहब की बेटी हो और कौन हो! हम बचपन से तुम्हारे दीवाने हैं। हिम्मत जुटाकर कल से तुम्हारा पीछा कर रहे हैं और तुम हो कि बात ही नहीं करती।"
"पर तुम नहीं जानते कि"
"कि दरोगा साहब हमारी हड्डी-पसली एक कर देंगे और क्या!"
"वह बात नहीं!"
"तो फिर"
"मैं किन्नर हूँ।" पहली बार अपने जीवन का अधूरा सच मीना किसी से एक झटके में कह गयी।
विजेन्दर एकटक उसे देखने लगा और बुदबुदाया- "पर तुम तोऽऽऽ"
उसे बीच में रोकते हुए मीना बोल पड़ी-
"प्यार तो अब तुम्हारा हवा हो गया होगा!"
"बिलकुल नहीं। तुम हाँ कह दो, तो सारी दुनिया एक ओर। मैं और तुम एक ओर।" इस बार एक श्वास में विजेन्दर बोल गया। 
मीना ने देखा कि आसमान झुक कर उसका अभिनन्दन कर रहा था। उसने झटपट पर्स से अपना मोबाइल निकाला और उधर से हैलो का स्वर सुनायी पड़ते ही चहक कर बोल पड़ी- "राजकुमार मिल गया पापा।"

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com

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