नवगीत कहो
या गीत।
हारे मन को सम्बल देता हूँ
निर्बल को भुजबल देता हूँ
पीड़ा के स्वर में घुला-मिला
उद्घोष कहो
या जीत।
मिली प्रीति तो प्रीति बुना मैंने
संसृति का झंकार गुना मैंने
झंझावातों के मध्य खिला
उल्लास कहो
या प्रीत।
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© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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