Sunday, 25 May 2025

अजब कहानी लोकतंत्र की/डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'


नौकर-चाकर जाने क्या-क्या, बंगला गाड़ी कार।
था चरवाहा छुग्गन जब अब, हीरे का व्यापार।
आज़ादी के दीवानों के, सपने बंटाधार।
सुशासन के मायने बदले, प्रजातंत्र बेज़ार।।

कीट पतंगें बकरी भेड़ें, जनता है बेहाल।
दाल गलेगी रम्मन की बस, पता सभी को हाल।
पेट बाँध श्रमजीवी सोते, सत्ता मालामाल। 
अजब कहानी लोकतंत्र की, बहुमत में घड़ियाल।।

अच्छे थे नृप भोज बहुत पर, गाज गिरेगी गाज।
चुनी हुई सरकार बनी है, गंगू है सरताज।
वोट-कला के निपुण पारखी, राज चलाते आज। 
भोली जनता छोटी मछली, नेता जैसे बाज।।

देह नोचने वाले भोगी, कहलाते हैं ध्यानी।
धन-पशुओं की पूजा होती, धक्के खाते ज्ञानी।
बगुले करते भ्रम हंसों का, कौवों की मनमानी।
अधर्मियों की चादर फैली, धर्मी पानी-पानी।।

सत्ता पाकर वे भी बदले, जिन पर था विश्वास।
हानि-लाभ का गुणा-भाग कर, रोज़ बिछाते लाश। 
प्रखर पहरुओं ने कर डाला, सब कुछ सत्यानाश। 
गाँधी जी की टोपी सर पर, और रचायें रास।।

गिद्ध भेड़िए स्वाँग रचाकर, रोज़ नोचते गात। 
हरिश्चन्द्र की जन्मभूमि पर, आये दिन उत्पात। 
लोमड़ियों से हाथ मिलाकर बिल्लों ने दी मात। 
ढोंगी कपटी हत्यारों की, उभरी नयी जमात।।

पाकर ख़ुश हो जाते जब हम, मत के बदले दाम।
निश्चित होगा 'ताल' समूचा, 'मछुआरों' के नाम। 
पाँच साल तक बड़बड़ करना, अपना इतना काम।
वोट डालना और खीझना, क़लमकार है नाम।।

बेर-चोर को सजा सुनाते, दुश्मन की रखवाली। 
मरते हैं सीमा पर सैनिक, ये गाते कव्वाली।
'सिस्टम' की तस्वीर भयानक, दिखती कितनी काली। 
अगल-बगल के ताल-तलैया, देते हैं अब गाली।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
सम्पर्क: 18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिनकोड: 212601
मोबाइल: 9839942005
ईमेल: veershailesh@gmail.com

(रचना काल : 2013-14)

Monday, 12 May 2025

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की लघु कविताएँ


युग बीतने की प्रतीक्षा

उसने कहा-
"सुनो, एक बात कहनी है।"
मैंने कहा-
"कहो।"
उसने कहा-
"कल कहूँगी।"
आज से कल तक-
एक युग के बीत जाने की 
प्रतीक्षा में हूँ मैं!


पीली धूप

सुबह हुई 
मुलाक़ात हुई,
गुड मॉर्निंग के मीठे बोल 
उतर गये हृदय में,
एक हो गयीं
चाय की चुस्की 
बाँसुरी की धुन,
धरा का पीत आँचल
लहराता रहा
मीलों तक अन्तर में,
चहका सूरज
फूटी किरणें,
छा गयी
मनोमस्तिष्क में 
पीली धूप!


चुस्कियों के बीच

भोर से दोपहर तक की आपाधापी 
लिखीं तीन-चार मीठी कविताएँ 
नींद आयी कुम्भकर्णी
हो गयी शाम,
चलो उठो अब
आओ-
बैठो साथ यहाँ 
बालकनी में,
पियेंगे गरमागरम काॅफी
चुस्कियों के बीच 
एक-दूजे को देखेंगे 
जी भर,
आओ न!


और चली गयी होगी

मैंने आवाज़ दी-
"रुको, मत जाना अभी" 
उसने सुना
ठिठक गयी
पहुँचा जब तक
जा चुकी थी वह।
जानता हूँ कि 
उसने की होगी प्रतीक्षा
अधिकतम समय तक
किन्तु विवश रही होगी 
और चली गयी होगी!


- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष- अन्वेषी संस्था)
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com

Sunday, 11 May 2025

कब टूटेंगी चुप्पियाँ (दोहा-संग्रह) : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

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कृति : कब टूटेंगी चुप्पियाँ (दोहा-संग्रह)
दोहाकार : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन 
ISBN : 978-81-984164-8-3
मूल्य : ₹ 299
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प्रतिष्ठित श्वेतवर्णा प्रकाशन से डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' का दोहा-संग्रह "कब टूटेंगी चुप्पियाँ" प्रकाशित हुआ है। समकालीन दोहा के इस महत्त्वपूर्ण संग्रह की भूमिका देश के लब्धप्रतिष्ठ दोहाकार श्री रघुविन्द्र यादव  ने लिखा है।

दोहा-संग्रह की भूमिका से:-
'समकालीन दोहा' के सुधी साधकों में से एक प्रमुख नाम डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' का है। उनकी दोहे के शिल्प पर अच्छी पकड़ है और कसे हुए दोहे लिखते हैं। डॉ. शैलेष न केवल दोहाकार हैं, बल्कि दोहा के अच्छे सम्पादक भी हैं। उन्होंने राजनैतिक पतन, सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं, नारी की दशा, रिश्तों के खोखलेपन, पर्यावरणीय ह्रास, हलधर के हालात, पाखण्ड, नैतिक पतन, स्वार्थ-लोलुपता आदि अनेक विषयों पर दोहे लिखे हैं। बिम्ब और प्रतीकों से सजे उनके तमाम दोहे परत दर परत समाज और राज की कलई खोलते हैं। सहज-सरल भाषा में लिखे गये इन दोहों में कवि ने प्रभावोत्पादकता बढ़ाने के लिए अन्य भाषाओं के शब्दों का भी उदारतापूर्वक प्रयोग किया है। शैलेष जी ने विविध प्रतीकों और अलंकारों का प्रयोग करके दोहों को प्रभावी बनाया है। संग्रह के लगभग सभी दोहे कथ्य और शिल्प दोनों कसौटियों पर खरे और पठनीय हैं। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि शैलेष जी के दोहे समकालीन दोहे की सभी विशेषताओं से युक्त हैं। भविष्य में शैलेष जी से दोहे को बहुत अपेक्षाएँ हैं।
- रघुविन्द्र यादव 



दोहा-संग्रह कब टूटेंगी चुप्पियाँ से डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के कुछ दोहे
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बापू जाता बार में, बेटा करता डेट।
नयी सभ्यता कर रही, हमको मटियामेट।।

नैतिकता बौनी हुई, यांत्रिक हुए उसूल।
आज द्वारिकाधीश को, गया सुदामा भूल।।

फिर बस्ती जंगल हुई, फिर गैंडे सरताज।
फिर मैना रोती रही, बाज़ न आये बाज।।

वही प्रेम का आवरण, वही नीम की छाँव।
बहुत दिनों के बाद मैं, लौटा अपने गाँव।।

टिकट कटा यह जानकर, हाल हुए बेहाल।
झण्डा बैनर टोपियाँ, बदल गये तत्काल।।

तन उनका लंदन हुआ, मन पेरिस की शाम।
इधर पड़ी माँ खाट पर, उधर छलकते जाम।।

अम्बर में ऊँचे उड़ूँ, तो भी रहूँ कबीर।
पैरों तले ज़मीन हो, ज़िन्दा रहे ज़मीर।।

गिद्धों ने की पैरवी, बाज़ गये फिर जीत।
फिर नोचेंगे पंख अब, चिड़िया है भयभीत।।

मॉल खुला कैसे यहाँ, गया कहाँ तालाब।
शहर बख़ूबी जानता, देता नहीं जवाब।।

हम-तुम अब ऐसे हुए, जैसे कुर्सी-मेज।
काम पड़ा तो जुड़ गये, बिना काम निस्तेज।।

पढ़कर उसने चुटकुले, दे दी सबको मात।
फूट-फूट रोती रही, कविता सारी रात।।

नारी नभ को चूमती, और उड़ाती यान।
फिर भी नर ने कब दिया, उसको उसका मान।।

- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- editorsgveer@gmail.com


Kab Tootengi Chuppiyan (Doha Sangrah) 
by Dr. Shailesh Gupta Veer