Sunday, 25 May 2025
अजब कहानी लोकतंत्र की/डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Monday, 12 May 2025
डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की लघु कविताएँ
युग बीतने की प्रतीक्षा
उसने कहा-
"सुनो, एक बात कहनी है।"
मैंने कहा-
"कहो।"
उसने कहा-
"कल कहूँगी।"
आज से कल तक-
एक युग के बीत जाने की
प्रतीक्षा में हूँ मैं!
□
पीली धूप
सुबह हुई
मुलाक़ात हुई,
गुड मॉर्निंग के मीठे बोल
उतर गये हृदय में,
एक हो गयीं
चाय की चुस्की
बाँसुरी की धुन,
धरा का पीत आँचल
लहराता रहा
मीलों तक अन्तर में,
चहका सूरज
फूटी किरणें,
छा गयी
मनोमस्तिष्क में
पीली धूप!
□
चुस्कियों के बीच
भोर से दोपहर तक की आपाधापी
लिखीं तीन-चार मीठी कविताएँ
नींद आयी कुम्भकर्णी
हो गयी शाम,
चलो उठो अब
आओ-
बैठो साथ यहाँ
बालकनी में,
पियेंगे गरमागरम काॅफी
चुस्कियों के बीच
एक-दूजे को देखेंगे
जी भर,
आओ न!
□
और चली गयी होगी
मैंने आवाज़ दी-
"रुको, मत जाना अभी"
उसने सुना
ठिठक गयी
पहुँचा जब तक
जा चुकी थी वह।
जानता हूँ कि
उसने की होगी प्रतीक्षा
अधिकतम समय तक
किन्तु विवश रही होगी
और चली गयी होगी!
□
- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष- अन्वेषी संस्था)
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Sunday, 11 May 2025
कब टूटेंगी चुप्पियाँ (दोहा-संग्रह) : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
फिर मैना रोती रही, बाज़ न आये बाज।।
वही प्रेम का आवरण, वही नीम की छाँव।
बहुत दिनों के बाद मैं, लौटा अपने गाँव।।
टिकट कटा यह जानकर, हाल हुए बेहाल।
झण्डा बैनर टोपियाँ, बदल गये तत्काल।।
तन उनका लंदन हुआ, मन पेरिस की शाम।
इधर पड़ी माँ खाट पर, उधर छलकते जाम।।
अम्बर में ऊँचे उड़ूँ, तो भी रहूँ कबीर।
पैरों तले ज़मीन हो, ज़िन्दा रहे ज़मीर।।
गिद्धों ने की पैरवी, बाज़ गये फिर जीत।
फिर नोचेंगे पंख अब, चिड़िया है भयभीत।।
मॉल खुला कैसे यहाँ, गया कहाँ तालाब।
शहर बख़ूबी जानता, देता नहीं जवाब।।
हम-तुम अब ऐसे हुए, जैसे कुर्सी-मेज।
काम पड़ा तो जुड़ गये, बिना काम निस्तेज।।
पढ़कर उसने चुटकुले, दे दी सबको मात।
फूट-फूट रोती रही, कविता सारी रात।।
नारी नभ को चूमती, और उड़ाती यान।