नौकर-चाकर जाने क्या-क्या, बंगला गाड़ी कार।
था चरवाहा छुग्गन जब अब, हीरे का व्यापार।
आज़ादी के दीवानों के, सपने बंटाधार।
सुशासन के मायने बदले, प्रजातंत्र बेज़ार।।
कीट पतंगें बकरी भेड़ें, जनता है बेहाल।
दाल गलेगी रम्मन की बस, पता सभी को हाल।
पेट बाँध श्रमजीवी सोते, सत्ता मालामाल।
अजब कहानी लोकतंत्र की, बहुमत में घड़ियाल।।
अच्छे थे नृप भोज बहुत पर, गाज गिरेगी गाज।
चुनी हुई सरकार बनी है, गंगू है सरताज।
वोट-कला के निपुण पारखी, राज चलाते आज।
भोली जनता छोटी मछली, नेता जैसे बाज।।
देह नोचने वाले भोगी, कहलाते हैं ध्यानी।
धन-पशुओं की पूजा होती, धक्के खाते ज्ञानी।
बगुले करते भ्रम हंसों का, कौवों की मनमानी।
अधर्मियों की चादर फैली, धर्मी पानी-पानी।।
सत्ता पाकर वे भी बदले, जिन पर था विश्वास।
हानि-लाभ का गुणा-भाग कर, रोज़ बिछाते लाश।
प्रखर पहरुओं ने कर डाला, सब कुछ सत्यानाश।
गाँधी जी की टोपी सर पर, और रचायें रास।।
गिद्ध भेड़िए स्वाँग रचाकर, रोज़ नोचते गात।
हरिश्चन्द्र की जन्मभूमि पर, आये दिन उत्पात।
लोमड़ियों से हाथ मिलाकर, बिल्लों ने दी मात।
ढोंगी कपटी हत्यारों की, उभरी नयी जमात।।
पाकर ख़ुश हो जाते जब हम, मत के बदले दाम।
निश्चित होगा 'ताल' समूचा, 'मछुआरों' के नाम।
पाँच साल तक बड़बड़ करना, अपना इतना काम।
वोट डालना और खीझना, क़लमकार है नाम।।
बेर-चोर को सजा सुनाते, दुश्मन की रखवाली।
मरते हैं सीमा पर सैनिक, ये गाते कव्वाली।
'सिस्टम' की तस्वीर भयानक, देखो कितनी काली।
अगल-बगल के ताल-तलैया, देते हैं अब गाली।।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
सम्पर्क: 18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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(रचना काल : 2013-14)
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