Sunday, 11 May 2025

कब टूटेंगी चुप्पियाँ (दोहा-संग्रह) : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

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कृति : कब टूटेंगी चुप्पियाँ (दोहा-संग्रह)
दोहाकार : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन 
ISBN : 978-81-984164-8-3
मूल्य : ₹ 299
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प्रतिष्ठित श्वेतवर्णा प्रकाशन से डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' का दोहा-संग्रह "कब टूटेंगी चुप्पियाँ" प्रकाशित हुआ है। समकालीन दोहा के इस महत्त्वपूर्ण संग्रह की भूमिका देश के लब्धप्रतिष्ठ दोहाकार श्री रघुविन्द्र यादव  ने लिखा है।

दोहा-संग्रह की भूमिका से:-
'समकालीन दोहा' के सुधी साधकों में से एक प्रमुख नाम डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' का है। उनकी दोहे के शिल्प पर अच्छी पकड़ है और कसे हुए दोहे लिखते हैं। डॉ. शैलेष न केवल दोहाकार हैं, बल्कि दोहा के अच्छे सम्पादक भी हैं। उन्होंने राजनैतिक पतन, सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं, नारी की दशा, रिश्तों के खोखलेपन, पर्यावरणीय ह्रास, हलधर के हालात, पाखण्ड, नैतिक पतन, स्वार्थ-लोलुपता आदि अनेक विषयों पर दोहे लिखे हैं। बिम्ब और प्रतीकों से सजे उनके तमाम दोहे परत दर परत समाज और राज की कलई खोलते हैं। सहज-सरल भाषा में लिखे गये इन दोहों में कवि ने प्रभावोत्पादकता बढ़ाने के लिए अन्य भाषाओं के शब्दों का भी उदारतापूर्वक प्रयोग किया है। शैलेष जी ने विविध प्रतीकों और अलंकारों का प्रयोग करके दोहों को प्रभावी बनाया है। संग्रह के लगभग सभी दोहे कथ्य और शिल्प दोनों कसौटियों पर खरे और पठनीय हैं। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि शैलेष जी के दोहे समकालीन दोहे की सभी विशेषताओं से युक्त हैं। भविष्य में शैलेष जी से दोहे को बहुत अपेक्षाएँ हैं।
- रघुविन्द्र यादव 



दोहा-संग्रह कब टूटेंगी चुप्पियाँ से डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के कुछ दोहे
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बापू जाता बार में, बेटा करता डेट।
नयी सभ्यता कर रही, हमको मटियामेट।।

नैतिकता बौनी हुई, यांत्रिक हुए उसूल।
आज द्वारिकाधीश को, गया सुदामा भूल।।

फिर बस्ती जंगल हुई, फिर गैंडे सरताज।
फिर मैना रोती रही, बाज़ न आये बाज।।

वही प्रेम का आवरण, वही नीम की छाँव।
बहुत दिनों के बाद मैं, लौटा अपने गाँव।।

टिकट कटा यह जानकर, हाल हुए बेहाल।
झण्डा बैनर टोपियाँ, बदल गये तत्काल।।

तन उनका लंदन हुआ, मन पेरिस की शाम।
इधर पड़ी माँ खाट पर, उधर छलकते जाम।।

अम्बर में ऊँचे उड़ूँ, तो भी रहूँ कबीर।
पैरों तले ज़मीन हो, ज़िन्दा रहे ज़मीर।।

गिद्धों ने की पैरवी, बाज़ गये फिर जीत।
फिर नोचेंगे पंख अब, चिड़िया है भयभीत।।

मॉल खुला कैसे यहाँ, गया कहाँ तालाब।
शहर बख़ूबी जानता, देता नहीं जवाब।।

हम-तुम अब ऐसे हुए, जैसे कुर्सी-मेज।
काम पड़ा तो जुड़ गये, बिना काम निस्तेज।।

पढ़कर उसने चुटकुले, दे दी सबको मात।
फूट-फूट रोती रही, कविता सारी रात।।

नारी नभ को चूमती, और उड़ाती यान।
फिर भी नर ने कब दिया, उसको उसका मान।।

- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- editorsgveer@gmail.com


Kab Tootengi Chuppiyan (Doha Sangrah) 
by Dr. Shailesh Gupta Veer 

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