युग बीतने की प्रतीक्षा
उसने कहा-
"सुनो, एक बात कहनी है।"
मैंने कहा-
"कहो।"
उसने कहा-
"कल कहूँगी।"
आज से कल तक-
एक युग के बीत जाने की
प्रतीक्षा में हूँ मैं!
□
पीली धूप
सुबह हुई
मुलाक़ात हुई,
गुड मॉर्निंग के मीठे बोल
उतर गये हृदय में,
एक हो गयीं
चाय की चुस्की
बाँसुरी की धुन,
धरा का पीत आँचल
लहराता रहा
मीलों तक अन्तर में,
चहका सूरज
फूटी किरणें,
छा गयी
मनोमस्तिष्क में
पीली धूप!
□
चुस्कियों के बीच
भोर से दोपहर तक की आपाधापी
लिखीं तीन-चार मीठी कविताएँ
नींद आयी कुम्भकर्णी
हो गयी शाम,
चलो उठो अब
आओ-
बैठो साथ यहाँ
बालकनी में,
पियेंगे गरमागरम काॅफी
चुस्कियों के बीच
एक-दूजे को देखेंगे
जी भर,
आओ न!
□
और चली गयी होगी
मैंने आवाज़ दी-
"रुको, मत जाना अभी"
उसने सुना
ठिठक गयी
पहुँचा जब तक
जा चुकी थी वह।
जानता हूँ कि
उसने की होगी प्रतीक्षा
अधिकतम समय तक
किन्तु विवश रही होगी
और चली गयी होगी!
□
- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष- अन्वेषी संस्था)
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com
Monday, 12 May 2025
डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की लघु कविताएँ
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