Tuesday, 7 October 2025

विद्युत गति से बिम्ब रचते दोहों का संग्रह है "कब टूटेंगी चुप्पियाँ"/समीक्षक- इन्दिरा किसलय


लघु कलेवर में महत्तम भावबोध को ध्वनित करती हुई दोहा विधा हिन्दी साहित्येतिहास के विशाल कालखण्ड पर छायी रही और आज भी ऐश्वर्य से प्रदीप्त है। इसकी उपस्थिति के आदि क्षण को कालिदास कृत विक्रमोर्वशीयम् में चिह्नित किया गया। कथितव्य है कि सिद्ध कवि सरहपा ने नौवीं शताब्दी ई. में प्रमुखता से प्रयुक्त किया। बौद्ध, जैन और शैवों ने भी दोहे रचे। सरलतम मात्रात्मक द्विपदी छन्द दोहा अपने विषय वैविध्य, विस्तृत भावभूमि, लयात्मकता, और कथ्य पर अचूक शर-संधान के कारण बेहद लोकप्रिय रहा। कबीर के परवर्ती काल में दोहे में सामन्ती तत्त्वों ने प्रवेश किया। मध्यकाल में इसे नीति और उपदेश के अनुरूप पाया गया। सूफ़ी-फ़क़ीर भी इसके मोह से बच न सके। सूर, तुलसी, रहीम, रसखान, जायसी, मीरा, बिहारी ने भी इसे पूर्ण अर्थवत्ता के साथ ग्रहण किया।

इसी क्रम में समकालीन दोहों के चरित्र की चर्चा करें तो समीक्ष्य कृति "कब टूटेंगी चुप्पियाँ" के प्रणेता डाॅ. शैलेष गुप्त 'वीर' ने युगधर्म का आह्वान स्वीकारा है। वे समय की प्रतिगामिता पर बारीक नज़र रखते हैं। मजाल है कोई विसंगति उनकी पैनी दृष्टि से छूट जाये। उनके दोहों में तीन पार्श्व तीव्रता से शब्दायित हुए हैं। पहला है अराजक व्यवस्था, दूसरा है किसान और सर्वहारा, तीसरा तकनीकी क्रान्ति से समाज में होनेवाले अयाचित बदलाव। मूल्यहीन राजनीति को लेकर उन्होंने कतिपय दोहों को आवाज़ दी। नारी अस्मिता, वृद्धाश्रम, गुमराह युवा पीढ़ी, मसख़रे मंच, पर्यावरण ध्वंस, रिश्तों का विघटन भी उनकी परिधि में समाया है।

चित्रात्मक बिम्ब विधान वीर जी की विशेषता है। शब्दों की मितव्ययिता, मार्मिकता, अलंकारिकता और सबसे महत्वपूर्ण गुण है स्पष्टता।उनकी हंस मेधा प्रतीक प्रतिमानों के चयन में पूर्णतः सक्षम है। दोहे पढ़ते ही विद्युत गति से बिम्ब उभरते हैं।साहित्यिक अपसंस्कृति को वे कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं-
"पढ़कर उसने चुटकुले, दे दी सबको मात।
फूट-फूट रोती रही, कविता सारी रात।।"

कृषि प्रधान राष्ट्र में कृषक आत्महत्या ऐसी शोकांतिका है, जो अनुदिन बढ़ती ही जा रही है। यह हृदयद्रावक दृश्य अगतिकता का चरम उपस्थित करता है-
"फंदे पर हलधर मिला, उड़े न्याय के होश।
बादल पाला बिजलियाँ, हुए सभी ख़ामोश।।"

"न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्", जो मानवता के हक़ में नहीं; वह वाद, विचार, विधि, या दृश्य उन्हें मंज़ूर नहीं।सूक्ष्मतम विद्रूप भी उन्हें आवेशित करता है। एक गहन भावदशा द्रष्टव्य है-
"सत्ता गांधारी हुई, अंधा सारा तंत्र।
दोनों मिलकर पढ़ रहे, बेकारी के मंत्र।।"

सहज सम्प्रेषण उनके दोहों का अलंकार है। उनकी तीव्रता का अनुभव करवाने के लिए उन्होंने, मीन, चील, बकरी, शेर, भेड़, भेड़िए, गैंडे, हिरनी, लोमड़, हंस, ऊँट, चिम्पैंजी, सीहार्स, गिरगिट, बाज, चूहे, बिल्ली जैसे कितने ही प्राणियों का प्रतीक बतौर इस्तेमाल किया है। शेर मदान्ध सत्ता का प्रतीक है और बकरी यानी आम आदमी।

चुनाव तंत्र में तब्दील होते लोक तंत्र और चाटुकार मीडिया की कुछ ऐसी छवि अंकित की है उन्होंने-
"लोकतंत्र को भेड़िये, देते गहरी चोट।
डरी हुई हैं बकरियाँ, डाल रही हैं वोट।।"

"डरे हुए हैं लोग क्यों, क्यों छाया है मौन।
डरा हुआ है मीडिया, प्रश्न करेगा कौन।।"

जाति धर्म के नाम पर विभाजनकारी ताक़तें उदग्र हैं।वीडियो गेम में मसरूफ़ बचपन, पाखण्डी बाबा, खाप पंचायतें, एसिड अटैक, महँगाई, बेरोज़गारी जैसे मुद्दे भाँय-भाँय कर रहे हैं और अन्तरिक्ष में छलाँग लगाती वैज्ञानिक उपलब्धियों का ढोल पीटा जा रहा है। अवसरवाद ने चुप्पियों को शह दी है। कृति का शीर्षक दोहा इसकी बानगी पेश करता है।
"जिप्सी कर्फ़्यू सायरन, आज़ादी का जश्न।
कब टूटेंगी चुप्पियाँ, शहर पूछता प्रश्न।।"

भारत युवाओं का देश है, पर क्या उनकी प्रचण्ड ऊर्जा का रचनात्मक उपयोग हो रहा है?
ऐसे कितने ही प्रश्न अनुत्तरित रहने को अभिशप्त हैं-
"दारू सट्टा छोकरी, गुटका और सिग्रेट।
मोबाइल पर व्यस्त है, यंग इंडिया ग्रेट।।"

एक अपेक्षित एवं अनुकरणीय विशेषता उनके सृजन में पायी जाती है वह है "तकनीकी नवाचार" को स्थान देना। इनमें समकालीनता की प्रतिध्वनि सुनी जा सकती है-
"नज़र पड़ी इनबाॅक्स पर, ख़ुशी मिली बेमाप।
एक इमोजी हार्ट का, आया है चुपचाप।।"

पंगु प्रशासन हो गया, मानवता भी फ्यूज़।
चैनलवालों को मिली, फिर से ब्रेकिंग न्यूज़।।"

"फागुन में आये नहीं, नहीं करूँगी बात।
अवनी चैटिंग कर रही, अम्बर से दिन-रात।।"

बेशक उनके दोहों का आचरण शास्त्रीय है पर तेवर कबीराना।सोने में सुहागा ही कहेंगे इसे।प्रतीक, प्रतिमान भाषा, उपजीव्य सब ताज़ा सदी के। चूँकि वीर जी सम्पादक, कवि, लेखक तो हैं ही; बहुभाषाविद् भी हैं। दोहों में उनका भाषायी संस्कार प्रभावित करता है। बेख़ौफ़ होना किसी भी सच्चे साहित्यकार की एकमात्र कसौटी है, जिस पर वे चौबीस कैरेट स्वर्ण जैसे सिद्ध हुए हैं।

निर्दोष मुद्रण एवं विचारों को आन्दोलित करते हुए आकर्षक मुखपृष्ठ के लिए श्वेतवर्णा प्रकाशन श्रेयार्थी है। दोहा विधा की समृद्धि में डाॅ. शैलेष गुप्त 'वीर' जी का योगदान चिरकाल तक स्मरण किया जायेगा। हाथ कंगन को आरसी क्या। "कब टूटेंगी चुप्पियाँ" पढ़िए, चुप्पी न टूटे तो कहिएगा। 
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कृति: कब टूटेंगी चुप्पियाँ (दोहा-संग्रह)
दोहाकार: डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
ISBN: 978-81-984164-8-3
मूल्य: ₹ 299
पृष्ठ: 104 (हार्ड बाउंड)
संस्करण: प्रथम (2025)
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■ समीक्षक सम्पर्क-
इन्दिरा किसलय
बालेश्वर अपार्टमेंट्स
रेणुका विहार, शताब्दी चौक
नागपुर (महाराष्ट्र)
पिन कोड- 440027
मोबाइल- 9960994911