Wednesday, 29 October 2025

'कब टूटेंगी चुप्पियाँ' : दोहों में बोलता यथार्थ/समीक्षक- हरकीरत हीर


पिछले दिनों चर्चित दोहाकार डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' जी का सद्यः प्रकाशित दोहा-संग्रह 'कब टूटेंगी चुप्पियाँ' मिला। पढ़कर आनन्द आ गया। निस्सन्देह! संग्रह के सभी दोहे एक से बढ़ कर एक हैं। हिन्दी काव्य की इस अनुपम विधा 'दोहा' का अपना अलग ही सौन्दर्य है, जिसे प्रस्तुत करने में शैलेष जी सिद्धहस्त हैं। आरम्भ के दोहे ने ही मन मोह लिया-
"पढ़कर वे दो पोथियाँ, कथा रहे हैं बाँच।
ख़ुद को हीरा कह रहे, रंग-बिरंगे काँच।।"

समकालीन हिन्दी साहित्य में जहाँ रचना की बाह्य भव्यता और भाषिक कौशल पर अधिक ज़ोर दिया जा रहा है, वहीं डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' का यह दोहा-संग्रह "कब टूटेंगी चुप्पियाँ" उस संवेदनात्मक और वैचारिक ईमानदारी का दस्तावेज़ है, जो साहित्य को केवल सौन्दर्य की वस्तु न मानकर उसे सच कहने का माध्यम बनाता है-
"बुना भूख ने जाल यों, समझ न पाया चाल।
सत्ता के पट बन्द थे, बुधिया मरा अकाल।।"

डॉ. शैलेष की भाषा क्लिष्ट नहीं, बल्कि ज़मीनी है- सीधी, सच्ची और चुभती हुई। यह भाषा आमजन की व्यथा भी है और विद्रोह भी। दोहों की पारम्परिक शैली को उन्होंने इस संग्रह में एक नया सामाजिक-राजनीतिक स्वर दिया है-
"चार-चार एसी चलें, शातिर कटियाबाज़।
'बिल' भरने के नाम पर, दब जाती आवाज़।।"

ऐसे दोहे व्यवस्था की उन दरारों पर प्रश्न उठाते हैं, जिन्हें अक्सर शाब्दिक सौन्दर्य के नीचे दबा दिया जाता है। संग्रह की सबसे बड़ी शक्ति इसका विषय चयन है। राजनीतिक विसंगतियाँ, स्त्री-विरोधी मानसिकता, धार्मिक कठमुल्लापन, भ्रष्टतंत्र, सामाजिक असमानताएँ और जन-अधिकार — सभी पर गहरी पकड़ और स्पष्ट दृष्टि दिखती है-
"माँ अक्सर तब सोचती, ले जायें यमदूत।
जब औरत के सामने, झिड़की देता पूत।।"

यह दोहा नारी के आत्मसम्मान पर होने वाले मौन आघातों की मार्मिक प्रस्तुति है। डॉ. शैलेष के दोहे कोई आदर्शवादी कल्पनालोक नहीं रचते। वे सच्चाई की कड़वी परतें खोलते हैं-
"बच्चों को रोटी मिले, नेह मनाये गेह।
जैसे फिरकी नाचती, नाच रही है देह।।"

दोहा-संग्रह 'कब टूटेंगी चुप्पियाँ' की कलात्मक उपलब्धि यह है कि यहाँ दोहे केवल तथ्य नहीं गिनाते, बल्कि भाव जगा कर पाठक के भीतर बेचैनी और चेतना दोनों उत्पन्न करते हैं; कभी चुटीले व्यंग्य में, कभी गहरी संवेदनाओं में, और कभी एक निर्भीक प्रतिरोध में। ये दोहे मौन समाज को झकझोरने की चेष्टा हैं-
"बापू जाता बार में, बेटा करता डेट।
नयी सभ्यता कर रही, हमको मटियामेट।।"

"गिद्धों ने की पैरवी, बाज़ गये फिर जीत।
फिर नोचेंगे पंख अब, चिड़िया है भयभीत।।"

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' केवल दोहे नहीं लिखते, वे एक सांस्कृतिक कर्मयोगी हैं। तीस से अधिक भाषाओं में अनुवाद, अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय भागीदारी, और साहित्य को जनचेतना से जोड़ने का यह प्रयास उन्हें समकालीन हिन्दी साहित्य में विशिष्ट बनाता है। उनकी कविता "बीकम फायरफ्लाई" का इज़राइल की शान्ति प्रदर्शनी में चयन इस बात का संकेत है कि उनका लेखन देशकाल की सीमाओं से परे जाकर मानवता की आवाज़ बनता है।

"कब टूटेंगी चुप्पियाँ" एक ऐसा संग्रह है; जो बताता है कि साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सच्चाई को उजागर करने की ज़िम्मेदारी भी निभा सकता है। यह पुस्तक उन पाठकों के लिए अमूल्य है, जो आज के भारत को उसके असली चेहरे के साथ जानना चाहते हैं। जो दोहों में केवल छन्द नहीं, बल्कि विचार और विरोध भी तलाशते हैं। जो साहित्य को एक सामाजिक हस्तक्षेप मानते हैं, न कि केवल एक व्यक्तिगत रचनात्मकता। दोहाकार डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' ने इस संग्रह के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि जब साहित्य चुप नहीं रहता, तभी समाज की चुप्पियाँ टूटती हैं। मैं इस संग्रह के लिए उन्हें हार्दिक बधाई देती हूँ।

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कृति: कब टूटेंगी चुप्पियाँ (दोहा-संग्रह)
दोहाकार: डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
ISBN: 978-81-984164-8-3
मूल्य: ₹ 299
पृष्ठ: 104 (हार्ड बाउंड)
संस्करण: प्रथम (2025)
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■ समीक्षक सम्पर्क-
हरकीरत हीर
18 ईस्ट लेन, सुन्दरपुर
हाउस न. 5, गुवाहाटी (असम)
पिन कोड- 781005
मोबाइल- 8638761826

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