Wednesday 29 April 2020

जा छिपा चाँद

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के प्रकृति और पर्यावरण पर आधारित 15 हाइकु
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आ मन नच
नदी-नौका-पर्वत
सपने सच।
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जल-जीवन
व्यर्थ हैं जल बिन
'शुक्र'-'मंगल'।
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मैं बढूँ आगे
जल-धार चीरता
सूर्य बुलाता।
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छीनते हम
धरा के आभूषण
दुखी है सृष्टि।
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मन-विभोर
छायी है हरियाली
मन ही चोर।
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मनु-संतति
जोश में होश खोयी
वसुधा रोयी।
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छाये बादल
मचल गयी निशा
जा छिपा चाँद।
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सर्वत्र हरा
मगन है किसान
मगन धरा।
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पानी ही पानी
पोर-पोर उमंग
भोर सुहानी।
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बीता आषाढ़
मुदित है प्रकृति
पावस ऋतु।
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किलकारियाँ
प्रकृति की गोद में
नौका भीतर।
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क्या कर सके
सूरज की तपिश
नौका नदी में।
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जब बचेंगे
जंगल-जलाशय
बचेंगे हम।
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छाये बादल
उमस छू-मंतर
मन-कमल।
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निहित प्राण
बूँद-बूँद जीवन
जल प्रमाण।
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© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com

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