Sunday 27 September 2020

मैं फिर ड्राइविंग सीट पर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

आज बातों-बातों में
जब पकड़ लिया 
तुमने मेरा हाथ 
बाँचे अपने दुख
मैं और तुम 
घुल गये
जैसे...
नहीं सोच पा रहा कोई उपमा
कई बार लगता ऐसे
जैसे मैं कलम, तुम स्याही
और समय काग़ज़ 
तुम आयी मेरे और क़रीब 
रख लिया अपना सर
मेरे कंधे पर
चुपचाप, 
मैं सुनाता रहा
तुम्हें एक प्यारा-सा गीत
जो लिखा था कभी तुम पर
तुम सुनती रही चुपचाप 
बीच-बीच में देख लेती
एकटक मुझे
हौले-से एक मुस्कान ने कुरेदा तुम्हें
और खिलखिला पड़ी तुम
जैसे होने लगी हो ज़ोर की बारिश 
शाम का धुँधलका
लो, तुमने छीन ली मुँह की बात-
गाड़ी रोको, कुछ देर
ठहर लेते हैं इसी मौसम के साथ
और मैंने रोक दी गाड़ी 
उतर आया ड्राइविंग सीट से
हाथ पकड़कर उतारा तुम्हें
लो सचमुच शुरू हो गयी ज़ोर की बारिश 
मानो पा गयी वसुधा 
अम्बर की पाती
भीगे हम-तुम
भीगा मन,
तुमने ज़िद की
ए सुनो, सुनाओ एक और गीत 
बादलों ने भी की मनुहार 
आकाशीय बिज़ली ने भी किये इशारे
हम चले कुछ देर आगे-पीछे
दृष्टि पड़ी आम के पेड़ पर
और तुम चीख पड़ी-
"झ्झ्झूला..."
दौड़ पड़ी उधर,
हम दोनो झूले पर मगन,
छा गया मौसम का जादू
तुम बैठ गयी
मेरी गोद में
एक हुई नज़र
गुलाबी हो गये मेघ के कपोल
लजा गयी तुम 
झुकी दृष्टि
और मैं निहारता रहा तुम्हें
अपलक,
मन में अनगिनत सपने
बस मैं और तुम 
अचानक कूदी एक गिलहरी
पत्तों से टपकी बूँदें 
और आ गिरीं
हम दोनो के होठों पर,,,
थमी बारिश 
कानों तक पहुँची आवाज़
अरे भाई, यह गाड़ी किसकी
कर लो एक किनारे
भगे हम दोनो
मैं फिर ड्राइविंग सीट पर
और तुमने फिर टिका लिया
अपना सिर मेरे कंधे पर
पकड़कर मेरा हाथ,
मैंने ऑन किया म्यूज़िक 
बजने लगा एक पुराना गीत-
"साथिया तूने क्या किया?
बेलिया ये तूने क्या किया?"
तुमने देखा मुझे
मैंने तुम्हें
और हमारी मुस्कान 
अलौकिक हो गयी!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
17/09/2020

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