Sunday 27 September 2020

चेतना के स्वर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

आज सूरज-चाँद मेरी मुट्ठी में नहीं
आज नदी के तट पर 
पहले जैसी रंगत नहीं
आज मौसम का जादू पहले जैसे नहीं
चिड़ियाँ चहचहा तो रहीं
तितलियाँ उड़ तो रहीं
भँवरे गुनगुना तो रहे
हवा सरसरा तो रही
पर पता नहीं क्यों
आज मन उदास है
काश कि वह पास होती
पूछ लेती मुझसे मेरी पीड़ा
मैं रख लेता अपना सर
उसकी गोद में
दो पल के लिए 
और फिर खिलखिला उठती प्रकृति
और फिर बज उठते हृदय के तार
और फिर से सुन पाता
धड़कनों का मधुरिम संगीत 
हृदय में घुल जाते मिसरी-से बोल
काश कि चेतना के स्वर
पहुँच पाते उस तक...!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
27/09/2020

No comments:

Post a Comment