ओत-प्रोत
वह सुनती रही मुझे
और कह गयी
एक स्वर में
कि धरा ने
अम्बर की
'हाँ' में 'हाँ' कह दिया।
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उसकी धड़कनों में मैं
मेरी श्वाँस-श्वाँस में वह
प्रेम की प्रत्येक धुन
छू रही है
अपनी पराकाष्ठा को,
आज सूरज-चाँद
मिलकर गायेंगे
सातों जनम तुम
एक-दूसरे के।
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निश्चल कंधों का
पाकर आसरा
निश्छलता ने
निश्चय के साथ
कहा-
"हाँ",
वसन्त का विस्तृत हो गया आकार
मास से वर्ष
वर्ष से युगों-युगों तक।
□
संयोग यों ही नहीं होते
मिलें न मिलें
शाश्वत प्रेम
दैहिकता से दूर
आत्मीयता का आकांक्षी,
हम हृदय से बतियाते
कोसों दूर
निश्छल प्रेम मे रमे
दो अलौकिक पंछी।
□
एक सुबह
हम-तुम
एक दोपहर
हम-तुम
एक शाम
हम-तुम
अनवरत् यही क्रम,
तुम्हारे हृदय में मैं ही मैं
और मेरे हृदय में
तुम ही तुम।
□
उसने कहा-
तुम तुम हो।
मैंने कहा-
तुम सबकुछ।
धरा हो गयी गुलाबी
और आसमान में
उग आये-
असंख्य इन्द्रधनुष।
□
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
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अति उत्तम सृजन हेतु हार्दिक बधाई आपको आदरणीय
ReplyDeleteआहा... अत्यंत सुंदर सृजन सर.... अति हृदयस्पर्शी... सर.... 🌹🌹🌹🌹बधाई सर 🙏🙏🙏
ReplyDeleteवाह वाह शैलेश जी ,एक से बढ़ कर एक क्षणिकाएं ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर क्षणिकाएँ!हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना हार्दिक बधाइयाँ भाईसाहब
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