मन मुदित
प्रतीक्षाओं का अन्त
छाया वसन्त।
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मन-पतंग
गुलाबी कल्पनाएँ
लाया वसन्त।
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झाँका फागुन
व्योम की दुबारी से
मन-बासंती।
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मन-मदन
चले आये मनाने
रूठे सजन।
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बदले रंग
अवनि क्या अम्बर
समय संग।
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पुराना गया
शुद्ध पर्यावरण
सर्वस्व नया।
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हँसे मदन
हो गया शिशिरान्त
मन अशान्त।
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बुझे न आग
जब घी डाले माघ
सुरीले राग।
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बहकी मैना
मैं-ना, मैं-ना करती
वसन्त रैना।
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जी भर कूकी
वसन्तसखा संग
वसन्तदूती।
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गुलाबी गाल
हुए और गुलाबी
वासन्ती जादू।
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कोहरा छँटा
मधुमास बिखेरे
मादक छटा।
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फागुनी व्योम
पीताम्बरा धरती
करें चैटिंग।
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खिलीं फसलें
खिले टेसू के फूल
मन मचले।
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चले मदन
मुरझाया संयोग
हँसा वियोग।
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धरा लजायी
पढ़कर ई-मेल
व्योम ने भेजा।
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वसन्त मस्त
मस्त वेलेंटाइन
पस्त वियोग।
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पुष्पबाण-से
धँसे हृदयान्तर
पुराने पत्र।
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नवचेतना
आनन्द व उल्लास
माघ महीना।
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भौंरों की गूँज
फूटीं नयी कोपलें
आया वसन्त।
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मिले वे गले
प्रेम के वशीभूत
दुनिया जले।
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चहका मन
हरियाईं उम्मीदें
आया वसन्त।
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नवमल्लिका
संकल्प की दुविधा
काम के बाण।
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कूकी कोयल
मगन हुए भौंरे
वसन्त-यात्रा।
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काम की माया
मदनोत्सव छाया
वसन्त आया।
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बौराये आम
उतरे रतिराज
बौरायी धरा।
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चहकी मैना
उतरे रतिराज
कन्दर्पोत्सव।
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स्वर्ण सरसों
प्रकृति काममय
करे ठिठोली।
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मेड़ पे मेड़
घूम रहे बोराये
आम के पेड़।
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सन्त-असन्त
रतिवर के तीर
मन-वसन्त।
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पीतवसना।
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सौ-सौ की नोटें
महबूब से दूर
यादें कचोटें।
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© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
veershailesh@gmail.com
कलाकृति : रंजना कश्यप
बहुत ही सुन्दर लेखन!
ReplyDeleteअत्यंत सुंदर हाइकु सृजन ।हार्दिक बधाई आपको आदरणीय वीर सर 💐🙏😊
ReplyDeleteअद्भुत बहुत बधाइयाँ मनोज जैन मधुर भोपाल
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