Sunday, 27 March 2022

अभी यहाँ मत आना - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

आत्मावलोकन के पूर्व की अवस्था 
उत्साह/बेसब्री/और आतुरता से 
आवृत होती है 
कछुए की गति की भाँति उमड़ती भावनाएँ
जा मिलती हैं 
खरगोश की भाँति दौड़ती कल्पनाओं से।
ओर-छोर/पीर-पोर
निरावृत होता है सब कुछ 
अबोध बालक के कौतूहलपूर्ण मस्तिष्क की तरह 
जारी रहता खेल बदस्तूर 
जब तक नहीं आ जाता 
काँव-काँव की टेर लगाता
कौवा मुँडेर पर। 

आत्मावलोकन की स्थिति में 
खुलते हैं कपाट मस्तिष्क के 
पुनर्जाग्रत होती है चेतना 
चिन्तन-धार छलछलाने लगती है
अनायास 
लौट आती है खोयी हुई चेतना।

सार्थक-निरर्थक 
सत्य-असत्य 
शाश्वत-क्षणभंगुर 
सर्वस्व स्पष्ट हो जाते हैं
लौकिक माँ के अलौकिक स्वरूप की तरह बेमानी हो जाती हैं जय-पराजय
छू-मंतर हो जाती हैं मन की कुंठाएँ
सारा कलुष झुलस जाता है 
विचारों की सात्विक किरणों से
हलचल होती है धरा में 
सिहर जाता है व्योम 
सुनायी देती है एक तेज़ आवाज़ 
किसी तारे की 
भाई! अभी यहाँ मत आना 
जब तक हो सके 
धरा पर रहकर
प्रकाश फैलाओ 
वहीं टिमटिमाओ।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष-अन्वेषी संस्था)
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005

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