पल-पल भारी हो गये, दुख सहते दिन-रात।
जोड़े हमने उम्र भर, पर न जुड़े जज़्बात।।
कैसा यह संत्रास है, कटे-कटे से हाथ।
पीड़ा-आँसू रात दिन, केवल अपने साथ।।
चीखूँ जितना दर्द में, होती उतनी टीस।
ख़ुशियों में मेरे रही, पीर हमेशा बीस।।
कभी निकलती आह है, कभी निकलती चीख।
चार पलों का मोद मन, माँग रहा है भीख।।
सब कुछ मेरे पास है, पीड़ा, दुख, संत्रास।
जब मैंने सुख से कहा, लौटा बहुत उदास।।
दुख संगी ताउम्र है, सुख पल दो पल साथ।
बहुत सोचकर दर्द का, थाम लिया है हाथ।।
पीड़ा जीवन-दृष्टि है, सुख है संगी क्षुद्र।
अविरल आँसू-वृष्टि से, निकला महासमुद्र।।
सुख के आगे दुख बसा, दुख के आगे जीत।
जो उलझा सुख-फेर में, वह रहता भयभीत।।
भरी सभा में आज मैं, फूँक रहा हूँ शंख।
दुख का परचम है सदा, सुख चिड़िया के पंख।।
नज़र फेरकर हैं गये, जबसे वे बेदर्द।
दरिया आँखों से बहे, और देह से दर्द।।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष-अन्वेषी संस्था)
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