जिस पल
मैं/तुममें
तुम/मुझमें
खो जाती हो,
उस पल
मैं- पुरुष
तुम- प्रकृति
हो जाती हो,
मैं
सामान्य से परे
और तुम!
विधाता की
अनुपम कृति
हो जाती हो!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com
![]() |
[पेन्टिंग : रंजना कश्यप] |
बहुत सुंदर पंक्तियां
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत पेंटिंग❤️, बहुत खूबसूरत शब्द 👌
ReplyDelete