Tuesday, 26 March 2019

जीत पर इतराते कंगन : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

तुम्हारे कंगन की
अरुणिम आभा से
झंकृत है समूचा परिवेश

मनोमस्तिष्क में गूँज रहे हैं
तुम्हारे ये कंगन
हृदय में धड़क रहे हैं
तुम्हारे ये कंगन
श्वासों में गतिमान हैं
तुम्हारे ये कंगन

मत घुमाओ
अपनी कलाई को
यों बारम्बार
कंगन की लालिमा
खींच रही है मुझे
तुम्हारी ओर,
इतना नि:शक्त नहीं हुआ था पहले कभी

अन्तर को
निरन्तर
बेधते ही
जा रहे हैं,
तुम्हारे ये कंगन
मानो कंगन नहीं
हों काम के दूत

तुम्हारी गोरी कलाइयों का
पाकर साथ
कंगन हो गये हैं
रतिराज के पुष्पबाण
अब तक जान चुके हैं
शायद ये भी
मैं हो गया हूँ सामर्थ्यशून्य

देखो इन कंगनों को
कैसे इतरा रहे हैं
अपनी जीत पर,
और तुम
फिर घुमा रही हो
कभी ये
कभी वो
अपनी गोरी कलाई!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com

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