Monday, 25 March 2019

मन मयूरपंख हो गया है : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'


आज तुमने फिर
पहन रक्खे हैं
अपने कानों में
मेरे पसन्दीदा
मयूर पंख वाले कुण्डल।

आज फिर तुम
मुझे पागल कर दोगी
तुम्हारी चितवन
मेरे अन्तर में
अनन्त आशाओं के
जाल बुनती है,
मत देखो ऐसे।

क्या नदी, क्या झील
क्या समन्दर
सब कुछ
कुछ भी नहीं
तुम्हारे इन नील-नयनों के समक्ष।

कपोलों पर थिरकती लटें
और ये गुलाबी रजपट
जी करता है
पास आकर
भर लूँ तुम्हें
अपनी बाहों में
क्या तुम जानती हो -
मेरा बोध
तुम्हारे सौन्दर्य में
समाहित हो गया है
अद्भुत है यह अहसास
हाँ, सखी!
मन मयूरपंख हो गया है
और झूम रहा है
ब्रह्माण्डरूपी कर्ण में
बनकर कुण्डल
हाँ...,

तुम सुनती ही नहीं
मेरी धड़कनें
कब से
तुम्हें पुकार रही हैं,
और तुम
बस
बस
मन्द-मन्द मुस्कुराती ही रहोगी
या पास भी आओगी,
धड़कनें ख़ामोश हों
इससे पहले आओ
गले लगा लो,
आकाशगंगाएँ
आतुर हैं
हमारे मिलन के
महा उत्सव को
निहारने के लिए!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
फतेहपुर,  उत्तर प्रदेश 
25/03/2019

2 comments:

  1. बहुत ही सुंदर लिखा....पढ़ते पढ़ते किसी की याद आती रही....एक चेहरा...मनमोहक सा ...जब तक कविता पड़ता रहा मेरे सामने रहा...ऐसे ही लिखते रहिये...शुभकामनाएं

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    1. हार्दिक आभार आपका गगन भाई

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