Sunday, 24 March 2019

यह गुलाबी वसन तुम्हारा : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

तुम्हारा यों एकटक देखना-
जैसे प्रकृति निहार रही हो
समन्दर की चंचल लहरों को।

तुम्हारा यों एकटक देखना-
जैसे मही को
टकटकी लगाये
देख रहा हो अनन्त आकाश।

तुम्हारा यों एकटक देखना-
मन करता है
बादलों की ओट से
बस देखता रहूँ तुम्हें।

समन्दर की चंचल लहरें गुलाबी हैं
सारा आकाश गुलाबी है
बादलों का रंग भी आज गुलाबी है
जानती हो क्यों?
तुम्हारे गुलाबी वसन की आभा
तुम्हारे गुलाबी वसन की ख़ुशबू
तुम्हारे गुलाबी वसन का कौतुक
सबने मिलकर
सृष्टि को कर दिया है गुलाबी,
और मेरा मन
तुम तो जानती ही हो सहेली
कब से गुलाबी है!
मत देखो यों एकटक-
तुम्हारे सौन्दर्य की
अद्भुत छटा ने
मेरे रोम-रोम को वसन्त कर दिया है!

इन अलकों-पलकों ने
बन्दी बना रक्खा है मुझे
और मेरे मन को,
मैं अब
मैं नहीं हूँ
और तुम-
तुम भी शायद तुम नहीं।
हाँ सखी,
तुम्हारी मासूमियत के समक्ष
नतमस्तक हूँ मैं।

छोड़ो स्वयं की उँगलियों से
स्वयं की उँगलियाँ पकड़ना,
आओ -
थाम लो इन हाथों को,
चलो साथ अनन्त काल तक।

तारे एक-दूजे के कान में
फुसफुसा रहे हैं
आज की रात
टिमटिमाएँगे जी भर
उन्हें भी प्रतीक्षा है
महामिलन की,
कुछ सुना तुमने
या देखती रहोगी
यों ही एकटक...!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
ईमेल- veershailesh@gmail.com 
24/03/2019


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