आदमी के आर-पार
Monday, 9 June 2025
हवाओं के ख़िलाफ़/डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की क्षणिकाएँ
Sunday, 25 May 2025
अजब कहानी लोकतंत्र की/डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
Monday, 12 May 2025
डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की लघु कविताएँ
युग बीतने की प्रतीक्षा
उसने कहा-
"सुनो, एक बात कहनी है।"
मैंने कहा-
"कहो।"
उसने कहा-
"कल कहूँगी।"
आज से कल तक-
एक युग के बीत जाने की
प्रतीक्षा में हूँ मैं!
□
पीली धूप
सुबह हुई
मुलाक़ात हुई,
गुड मॉर्निंग के मीठे बोल
उतर गये हृदय में,
एक हो गयीं
चाय की चुस्की
बाँसुरी की धुन,
धरा का पीत आँचल
लहराता रहा
मीलों तक अन्तर में,
चहका सूरज
फूटी किरणें,
छा गयी
मनोमस्तिष्क में
पीली धूप!
□
चुस्कियों के बीच
भोर से दोपहर तक की आपाधापी
लिखीं तीन-चार मीठी कविताएँ
नींद आयी कुम्भकर्णी
हो गयी शाम,
चलो उठो अब
आओ-
बैठो साथ यहाँ
बालकनी में,
पियेंगे गरमागरम काॅफी
चुस्कियों के बीच
एक-दूजे को देखेंगे
जी भर,
आओ न!
□
और चली गयी होगी
मैंने आवाज़ दी-
"रुको, मत जाना अभी"
उसने सुना
ठिठक गयी
पहुँचा जब तक
जा चुकी थी वह।
जानता हूँ कि
उसने की होगी प्रतीक्षा
अधिकतम समय तक
किन्तु विवश रही होगी
और चली गयी होगी!
□
- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष- अन्वेषी संस्था)
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com
Sunday, 11 May 2025
कब टूटेंगी चुप्पियाँ (दोहा-संग्रह) : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
फिर मैना रोती रही, बाज़ न आये बाज।।
वही प्रेम का आवरण, वही नीम की छाँव।
बहुत दिनों के बाद मैं, लौटा अपने गाँव।।
टिकट कटा यह जानकर, हाल हुए बेहाल।
झण्डा बैनर टोपियाँ, बदल गये तत्काल।।
तन उनका लंदन हुआ, मन पेरिस की शाम।
इधर पड़ी माँ खाट पर, उधर छलकते जाम।।
अम्बर में ऊँचे उड़ूँ, तो भी रहूँ कबीर।
पैरों तले ज़मीन हो, ज़िन्दा रहे ज़मीर।।
गिद्धों ने की पैरवी, बाज़ गये फिर जीत।
फिर नोचेंगे पंख अब, चिड़िया है भयभीत।।
मॉल खुला कैसे यहाँ, गया कहाँ तालाब।
शहर बख़ूबी जानता, देता नहीं जवाब।।
हम-तुम अब ऐसे हुए, जैसे कुर्सी-मेज।
काम पड़ा तो जुड़ गये, बिना काम निस्तेज।।
पढ़कर उसने चुटकुले, दे दी सबको मात।
फूट-फूट रोती रही, कविता सारी रात।।
नारी नभ को चूमती, और उड़ाती यान।
Wednesday, 29 January 2025
यों तुम्हारी याद में : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
सोचा था
सर्दी के मौसम में
तुम ज़रूर याद करोगी
कई दिनों तक
करता रहा प्रतीक्षा
बजेगी मोबाइल की रिंग
निकल आयेगी धूप
और छँट जायेगा
घना कुहासा
मैंने खँगाला
मैसेंजर और ह्वाट्सएप में
पड़ी पुरानी चैट
मन तरंगित होता रहा
खिलती रहीं हृदय में
आशाओं की
असंख्य कुमुदिनियाँ
झकझोर दिया
आत्मा ने यकायक
बरसने लगे
देर रात्रि से घुमड़ते बादल
स्मृतियों का लोप सम्भव नहीं
जानता हूँ
तकनीक के संक्रमण काल से
गुज़रती चेतना
अलमारी में ढूँढ़ने लगी
वर्षों पुराने पत्र
लैपटॉप में तलाशती रही
पुरानी ईमेल
लगा कि फट पड़ेगा आसमान
बिजली की कड़कड़ाहट
झकझोरती रही मुझे
ठण्डक अपने रौद्र रूप में
प्रवेश कर चुकी है
संकल्पों का लेखा-जोखा
भ्रम के अतिरिक्त
कुछ नहीं,
जैसे गुज़रे हैं
दिवस/महीने/वर्ष
यों तुम्हारी याद में
एक दिन
और कट जायेगा!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष : अन्वेषी संस्था)
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
तुम गुम थी कहीं और : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की क्षणिकाएँ
माना, तुम कहीं और थी
मैं कहीं और
पर गुम रहा
तुम्हारे ही ख़यालों में,
यादों का कारवाँ
जब तक पहुँचा
तुम्हारे पते पर,
तुम गुम थी कहीं और।
□
एक ओर आशाओं की
ऊँची पर्वत शृंखला
दूसरी ओर अवरोधों की
गहरी घाटियाँ,
दोनो के मध्य
जूझती है अनवरत्
मेरी इच्छा शक्ति।
□
शीत युद्ध जारी है
धरा और
अम्बर के बीच,
बुलाया है क्षितिज ने
अवलोकनार्थ।
□
खेत-मकान बेचकर
रामधनी का बेटा
शहर में रहता है,
गाँव नर्क है
बात-बात पर
कहता है।
□
पुश्तैनी मकान
पाँच बीघा ज़मीन
बेचकर
बहुत ख़ुश है फुल्लू,
कल उसने ख़रीद लिया है
पॉश एरिया में
नया
टू बीएचके फ़्लैट।
□
दस बिसुवे के मकान में
रहने वाला
गयादीन
दस बाई दस के
फ़्लैट में गुज़ारा करता है,
"महानगर में रहता हूँ"
शान से कहता है।
□
विकास के रास्ते पर
एक नयी किरण
दिखायी दी है,
आशान्वित हूँ
चुनाव पश्चात् भी
बना रहेगा
अस्तित्व।
□
झरोखों के पार भी
है कोई दुनिया,
चूल्हा-चौका करते
सोच रही
मुनिया।
□
आज बेटे को
मिली है
पहली किताब,
ख़ुश है अनपढ़ माँ
जैसे जीत लिया हो
उसने
ओलम्पिक में
स्वर्ण पदक।
□
त्रिज्या और जीवा के
झगड़े में
खो गयी परिधि
नहीं बचा
वृत्त का अस्तित्व।
□
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
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ईमेल- editorsgveer@gmail.com
Monday, 18 November 2024
दो आत्माएँ सन्निकट हैं/डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
तुमने फिर छू लिया मुझे रोम-रोम
तुम आयी और कहकर चली गयी कि
"मैं अंकित हूँ मानस-पटल पर सदा-सदा के लिए"
मैं निहारता रहा देर तक तुम्हारी आभा को
और निरन्तर अनुभूति होती रही
अलौकिक सौन्दर्य की
कभी लगा
कि कोई अदृश्य ऊर्जा खींच रही मुझे
और फिर कभी
तुम नीहारिका बनकर लुभाती रही मुझे
अनायास तो नहीं सबकुछ
जानता हूँ मैं भी
दो आत्माएँ सन्निकट हैं
कहना चाहती हैं बहुत कुछ
ब्रह्माण्ड के दो छोर
हो जाते हैं एक
अद्भुत है महामिलन
खगोलशास्त्रियों के लिए
गहरा रहस्य है
यह अद्वैत!
गोधूलि वेला के पल
बुला रहे हैं हमें
आओ सहेली
एक चक्कर और लगा लें
अन्तरिक्ष के दोनो ध्रुवों के मध्य!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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