तुमने फिर छू लिया मुझे रोम-रोम
तुम आयी और कहकर चली गयी कि
"मैं अंकित हूँ मानस-पटल पर सदा-सदा के लिए"
मैं निहारता रहा देर तक तुम्हारी आभा को
और निरन्तर अनुभूति होती रही
अलौकिक सौन्दर्य की
कभी लगा
कि कोई अदृश्य ऊर्जा खींच रही मुझे
और फिर कभी
तुम नीहारिका बनकर लुभाती रही मुझे
अनायास तो नहीं सबकुछ
जानता हूँ मैं भी
दो आत्माएँ सन्निकट हैं
कहना चाहती हैं बहुत कुछ
ब्रह्माण्ड के दो छोर
हो जाते हैं एक
अद्भुत है महामिलन
खगोलशास्त्रियों के लिए
गहरा रहस्य है
यह अद्वैत!
गोधूलि वेला के पल
बुला रहे हैं हमें
आओ सहेली
एक चक्कर और लगा लें
अन्तरिक्ष के दोनो ध्रुवों के मध्य!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
मोबाइल- 9839942005
ईमेल- veershailesh@gmail.com