मैंने वर्षों पहले
उससे कहा था-
"अगर मैं न रहा दुनिया में
तो याद करोगी मुझे!"
उसने लपक कर एक हाथ से
पकड़ लिया था मेरा हाथ
और दूसरे से
बन्द कर दिया था मेरा मुँह,
बोल पड़ी थी रुआँसी-
"कभी अब मत कहना ऐसा।"
वर्षों बाद
मैं कल फिर बोल गया
उससे यही बात-
"अगर मैं न रहा दुनिया में
तो याद करोगी मुझे!"
एकटक बोल गयी वह-
"सुनो! मुँह मत खुलवाओ
किसी के रहने न रहने से
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
दुनिया चलती रहती है!"
सर्वथा भिन्न होता है
प्रेम में होने
और नहीं होने की
अनुभूतियों का अन्तर।
हाँ! अब हम प्रेम में नहीं हैं
पर मेरे भीतर का प्रेम
अभी भी जीवित है
मैं मिटाना चाहता हूँ इसे!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
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